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भावार्थ-जो देहके छेदनादि कार्य होते भी राग द्वेषादि विकल्प नहीं करता, निर्विकल्पभावको प्राप्त हुआ शुद्ध आत्माको ध्याता है, वह थोड़े ही समयमें मोक्षको पाता है ।।७२।।
अथ कर्मकृतभावानचेतनं द्रव्यं च निश्चयनयेन जीवाद्भिन जानीहीति कथयतिकम्महं केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु । जीव-सहावहं भिण्ण जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ॥७३॥ कर्मणः संबन्धिनः भावाः अन्यत् अचेतनं द्रव्यम् ।
जीवस्वभावात् भिन्न जीव नियमेन बुध्यस्व सर्वम् ।।७३॥
आगे ऐसा कहते हैं, जो कर्मजनित रागादिभाव और शरीरादि परवस्तु हैं, वे चेतन द्रव्य न होनेसे निश्चयनयकर जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जानो-(जीव) हे जीव, (कर्मणः सम्बन्धिनः भावाः) कर्मोकर जन्य रागादिक भाव और (अन्यत्) दूसरा (अचेतनं द्रव्यं) शरीरादिक अचेतन पदार्थ (सर्व) इन सबको (नियमेन) निश्चयसे (जीवस्वभावात् ) जीवके स्वभावसे (भिन्न) जुदे (बुध्यस्व) जानो, अर्थात् ये सब कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, आत्माका स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी है ।
भावार्थ-यह है, कि जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगोंकी निवृत्तिरूप परिणाम हैं, उस समय शुद्ध आत्मा ही उपादेय है ॥७३॥
अथ ज्ञानमयपरमात्मनः सकाशादन्यत्परद्रव्यं मुक्त्वा शुद्धात्मानं भावयेति । निरूपयति
अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ । सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प सहाउ ॥७४॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यः परः भावः ।
तं त्यक्त्वा जीव त्वं भावय आत्मस्वभावम् ।।७४।।
आगे ज्ञानमयी परमात्मासे भिन्न परद्रव्यको छोड़कर तू शुद्धात्माका ध्यान कर, ऐसा कहते हैं-(जीव) हे जीव (त्वं) तू (ज्ञानमयं) ज्ञानमयी (आत्मानं) आत्माको (मुक्त्वा ) छोड़कर (अन्यः परः भावः) अन्य जो दूसरे भाव हैं, (तं) उनको (छंड. यित्वा) छोड़कर (आत्मस्वभावं) अपने शुद्धात्म स्वभावको (भावय) चिन्तवन कर ।