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सो 'यह मुझे 'छूटा'
[ ६३ ] इसके बारेमें दृष्टान्त कहते हैं— कोई एक पुरुष सांकलसे बन्ध रहा है, और कोई एक पुरुष बंध रहित है, उनमें से जो पहले बंधा था, उसको तो 'मुक्त' (छूटा ) ऐसा कहना, ठीक मालूम पड़ता है, और दूसरा जो बंधा ही नहीं, उसको जो 'आप 'छूट गये' ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बंधा था, कहता है, बंधा होवे, वह छूटे, इसलिये बंधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बंधा ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसी प्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बंधा हुआ नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है । बंध भी व्यवहारनयकर है, बंध भी व्यवहारनयकर और मुक्ति भी व्यवहारनयकर है, शुद्धनिश्चयनयकर न बंध है, न मोक्ष है और अशुद्धयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये । यहां यह अभिप्राय है, कि सिद्ध समान यह अपना शुद्धात्मा वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन पुरुषोंको उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ।। ६८ ।।
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अथ निश्चयनयेन जीवस्योद्भवजरामरणरोगलिङ्गवर्णसंज्ञा नास्तीति कथयन्तिप्रत्थि ण उब्भउ जर मरणु रोय वि लिंग विवरण | यिमिं ऋप्पु वियाणि तुहुं जीवहं एक्क विसरण ||६६ ॥
अस्ति न उद्भवः जरामरणं रोगाः अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः ।
नियमेन आत्मन् विजानीहि त्वं जीवस्य एकापि संज्ञा ||६||
आगे निश्चयनयकर जीवके जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण, और संज्ञा नहीं है, आत्मा इन सब विकारोंसे रहित है, ऐसा कहते हैं— (आत्मन्) हे जीव आत्माराम, (जीवस्य) जीवके (उद्भवः न) जन्म नहीं ( ग्रस्ति ) है ( जरामरणः ) जरा ( बुढ़ापा ) मरण ( रोगी अपि) रोग ( लिंगान्यपि ) चिन्ह ( वर्णाः ) वर्ण ( एका संज्ञा अपि) आहारादिक एक भी संज्ञा वा नाम नहीं है, ऐसा ( त्वं ) तू (नियमेन ) निश्चयकर (विजानीहि ) जान ।
भावार्थ - वीतराग निर्विकल्पसमाधि से विपरीत जो क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि विभाव परिणाम उनकर उपार्जन किये कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुए जन्म मरण आदि अनेक विकार हैं, वे शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनयकर आत्मा केवलज्ञानादि अनंत गुणाकर पूर्ण है, और अनादि सतानसे प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री, पुरुष, नपुंसकलिंग, सफेद काला वर्ण, वगैर आहार,