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द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, ये स्वभावगुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं । अगुरुलघु गुणका परि
मन षटगुणी हानि - वृद्धिरूप है । यह स्वभावपर्याय सभी द्रव्यों में है, कोई द्रव्य षट्गुणी हानि - वृद्धि बिना नहीं है, यही अर्थ पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्धपर्याय है । यह शुद्ध पर्याय संसारीजीवोंके सब अजीव पदार्थोंके तथा सिद्धों के पायी जाती है, और सिद्धपर्याय तथा केवलज्ञानादि गुण सिद्धोंके ही पाया जाता है, दूसरोंके नहीं । संसारीजीवों मतिज्ञानादि विभावगुण और नर-नारकी आदि विभावपर्याय ये संसारी जीवों के पायी जाती हैं । ये तो जीव द्रव्यके गुण-पर्याय कहे और पुद्गलके परमाणुरूप तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभावगुण और एक वर्णसे दूसरे वर्णरूप होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणुमें दो तीन इत्यादि अनेक परमाणु मिलकर स्कन्धरूप होना, ये विभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं ।
शुकादि स्कन्ध में जो वर्ण आदि हैं, वे विभावगुण कहे जाते हैं, और वर्णसे वर्णान्तर होना, रससे रसान्तर होना, गन्धसे अन्य गन्ध होना, यह विभाव-पर्याय हैं । परमाणु शुद्ध द्रव्य में एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और शीत उष्ण में से एक, तथा रूखे चिकने में से एक, ऐसे दो स्पर्श, इस तरह पांच गुण तो मुख्य हैं, इनको आदि से अस्तित्वादि अनन्तगुण हैं, वे स्वभाव- गुण कहे जाते हैं, और परमाणुका जो आकार वह स्वभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभावगुण व्यंजनपर्याय है । जीव और पुद्गल इन दोनों में तो स्वभाव और विभाव दोनों हैं, तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इन चारोंमें अस्तित्वादि स्वभाव-गुण ही हैं, और अर्थ पर्याय षट्गुणी हानि वृद्धिरूप स्वभाव - पर्याय सभीके हैं । धर्मादिके चार पदार्थोंके विभावगुणपर्याय नहीं हैं | आकाशके घटाकाश मठाकाश इत्यादिकी जो कहावत है, वह उपचारमात्र है | ये षट् द्रव्योंके गुण- पर्याय कहे गये हैं । इन षट्द्रव्यों में जो शुद्ध गुण, शुद्ध पर्याय सहित जो शुद्ध जीवद्रव्य है, वही उपादेय है-आराधने योग्य है ||५७||
अथ जीवस्य विशेषेण द्रव्यगुणपर्यायान् कथयति -
अप्पा बुज्झहि दo तुहुँ गुण पुरणु दंसणु गागु । पज्जय चउ- गइ-भाव त कम्म - विरिणम्मिय जागु ॥ ५८ ॥
आत्मानं बुध्यस्व द्रव्यं त्व गुणी पुनः दर्शनं ज्ञानम् । पर्यायान् चतुर्गतिभावान् तनुं कर्मविनिर्मितान् जानीहिं ॥ ५८ ॥