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[ ५८ ] पंच वि इदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव । जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव ॥६३॥ पञ्चापि इन्द्रियाणि अन्यत् मनः अन्यदपि सकलविभावः । जीवानां कर्मणा जनिताः जीव अन्यदपि चतुर्गतितापाः ।।६३।।
इस प्रकार कर्मस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे चार दोहे कहे। आगे पांच इन्द्रिय, मन, समस्त विभाव और चार गतिके दुःख ये सब शुद्ध निश्चयनयकर कर्मसे उपजे हैं, जीवके नहीं हैं, यह अभिप्राय मन में रखकर दोहा-सूत्र कहते हैं- (पंचापि) पांचों ही (इंद्रियाणि) इन्द्रियां (अन्यत्) भिन्न हैं, (मनः) मन (अपि) और (सकलविभावः) रागादि सब विभाव परिणाम (अन्यत्) अन्य हैं, (चतुर्गतितापाः अपि) तथा चारों गतियों के दुःख भी (अन्यत) अन्य हैं, (जीव) हे जीव, ये सब (जोवानां) जीवोंके (कर्मणा) कर्मकर (जनिताः) उपजे हैं, जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जान ।
____भावार्थ-इन्द्रिय रहित शुद्धात्मासे विपरीत जो स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियां, शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्पसे रहित आत्मासे विपरीत अनेक संकल्प-विकल्पसमूहरूप जो मन और शुद्धात्मतत्त्वका अनुभूतिसे भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मासे जुदे हैं, तथा वीतराग परमानन्द सुखरूप अमृतसे पराङ मुख जो समस्त चतुर्गतिके महान् दुःखदायी दुःख वे सब जीवपदार्थ से भिन्न हैं। ये सभी अशुद्धनिश्चयनयकर आत्म-ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये हुए कर्मोसे जीवके । उत्पन्न हुए हैं। इसलिये ये सब अपने नहीं हैं, कर्मजनित हैं । यहांपर परमात्म-द्रव्यसे विपरीत जो पांचों इन्द्रियोंको आदि लेकर सब विकल्प-जाल हैं, वे तो त्यागने योग्य हैं, उससे विपरीत पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषाको आदि लेकर सब विकल्प-जालोंसे रहित अपना शुद्धात्मतत्त्व वही परमसमाधिके समय साक्षात् उपादेय है । यह तात्पर्य जानना ।।६३।।
___अथ सांसारिकसमस्तसुखदुःखानि शुद्धनिश्चयनयेन जीवानां कर्म जनयतीति निरूपयति
दुक्खु वि सुक्खु वि वहु-विहउ जीवहं कम्मु जणेइ । अप्पा देववइ मुणइ पर णिच्छउ एउं भणेइ ॥६४॥ दुःखमपि सुखमपि बहुविधं जीवानां कर्म जनयति । आत्मा पश्यति मनुते परं निश्चयः एवं भणति ।।६४।।