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और जो पहले बंधा मुक्त तो छूटे हुएका
[ ५५ ] जीव पहले बन्धा हुआ होवे, तभी 'मुक्त' ऐसा कथन संभवता है, ही नहीं तो फिर 'मुक्त' ऐसा कहना किस तरह ठीक हो सकता । नाम है, सो जब बन्धा ही नहीं तो फिर 'छूटा' किस तरह कहा जा सकता है । जो अबन्ध है, उसको छूटा कहना ठीक नहीं । जो विभावबन्ध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है । जो यह अनादिका मुक्त ही होवे, तो पीछे बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है । बन्ध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके । जो बन्ध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है ||५||
अथ व्यवहारनयेन जीवः पुण्यपापरूपो भवतीति प्रतिपादयति
एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु ।
बहु भावें परिवs तेरा जि धम्म हम्मु ॥ ६०॥ एष व्यवहारेण जीवः हेतु लब्ध्वा कर्म ।
बहुविधभावेन परिणमति तेन एव धर्मः अधर्म ||६०||
आगे व्यवहारनयसे यह जीव पुण्य-पापरूप होता है, ऐसा कहते हैं- ( एष जीवः) यह जीव ( व्यवहारेण ) व्यवहारनयकर (कर्म हेतुं ) कर्मरूप कारणको ( लब्ध्वा ) पाकरके (बहुविधभावेन) अनेक विकल्परूप ( ' परिणमति' ) परिणमता है । ( तेन एव ) इसीसे (धर्मः अधर्मः) पुण्य और पापरूप होता है ।
भावार्थ - यह जीव शुद्ध निश्चयकर वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी व्यवहारनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके अभाव से रागादिरूप परिणमने से उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्मोंके कारणको पाकर पुण्यी तथा पापी होता है । यद्यपि यह व्यवहारनयकर पुण्य पापरूप है, तो भी परमात्माकी अनुभूति से तन्मयी जो वीतराग सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थों में इच्छाके रोकनेरूप तप, ये चार निश्चयआराधना हैं, उनकी भावनाके समय साक्षात् उपादेयरूप वीतराग परमानन्द जो मोक्षका सुख उससे अभिन्न आनन्दमयी ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ।। ६० ।।
अथ तानि पुनः कर्माण्यष्टौ भवन्तीति कथयति — ते पुणु जीवहं जोइया
विकम्म हवंति । जेहिं जि पिय जीव वि अप्प - सहाउ लहंति ॥ ६१ ॥