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जीवकर्मणोरनादि संबन्धं कथयति -
जीवहं कम्म अाइ जिय जणियउ कम्मु ते । कम्मे जीउ विजउ णवि दोहिं वि आइ ए जेण ॥ ५६ ॥
जीवानां कर्माणि अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन ।
कर्मणा जीवोsपि जनितः नैव द्वयोरपि आदिः न येन ॥५६॥
ऐसे तीन प्रकारकी अत्माका है, कथन जिसमें, ऐसे पहले महाधिकारमें द्रव्य - गुण पर्याय के व्याख्यानकी मुख्यतासे सातवें स्थल में तीन दोहा- सूत्र कहे । आगे आदर करने योग्य अतीन्द्रिय सुखसे तन्मयो जो निर्विकल्पभाव उसकी प्राप्ति के लिए शुद्ध गुणपर्याय के व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं । इनमें पहले चार दोहोंमें अनादि कर्मसंबंधका व्याख्यान और पिछले चार दोहों में कर्म के फलका व्याख्यान इस प्रकार आठ दोहोंका रहस्य है, उसमें प्रथम ही जीव और कर्मका अनादि कालका सम्बन्ध है, ऐसा कहते हैं - ( हे जीव) हे आत्मा (जीवानां) जोवोंके ( कर्माणि) कर्म (अनादीनि ) अनादि काल से हैं, अर्थात् जीव कर्मका अनादि कालका सम्बन्ध है, (तेन) उस जीवने (कर्म) कर्म ( न जनितं ) नहीं उत्पन्न किये, ( कर्मणा अपि) ज्ञानावरणादि कर्मोंने भो ( जीवः ) यह जीव (नैव जनितः) नहीं उपजाया, (येन) क्योंकि ( द्वयोः अपि) जीव कर्म इन दोनोंका ही (आदि: न) आदि नहीं है, दोनों ही अनादिके हैं ।
भावार्थ - यद्यपि व्यवहारनयसे पर्यायों के समूहकी अपेक्षा नये-नये कर्म समयसमय बांधता है, नये-नये उपार्जन करता है, जैसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज होता है, उसी तरह पहले बीजरूप कर्मोंसे देह धारता है, देहमें नये-नये कर्मोंको विस्तारता है, यह तो बीजसे वृक्ष हुआ । इसीप्रकार जन्म सन्तान चली जाती जाती है । परन्तु शुद्ध निश्चयनयसे विचारा जावे, तो जीव निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव ही है । जीवने ये कर्म न तो उत्पन्न किये, और यह जीव भी इन कर्मोंने नहीं पैदा किया । जीव भी अनादिका है, ये पुद्गलस्कन्ध भी अनादिके हैं, जीव और कर्म नये नहीं हैं, जीव अनादिका कर्मोंसे बन्धा है । और कर्मोंके क्षयसे मुक्त होता है ।
इस व्याख्यानसे जो कोई ऐसा कहते हैं कि, आत्मा सदा मुक्त है, कर्मोसे रहित है, उनका निराकरण ( खण्डन ) किया । ये वृथा कहते हैं, ऐसा तात्पर्य है । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है- "मुक्तश्चेत्" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो यह