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आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है । यहांपर बाह्य इन्द्रिय-ज्ञान सब तरह हेय है, और अतोन्द्रियज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ।।५३।।
अथ शरीरनामकर्मकारणरहितो जीवो न वर्धते न च हीयते तेन कारणेन मुक्तश्चरमशरीरप्रमाणो भवतीति निरूपयति -- .. ... कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्डइ खिरइ ण जेण । चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण ॥५४॥
कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन ।
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्र वन्ति तेन ॥५४॥ .. आगे शरीरनामा नामकर्मरूप कारणसे रहित यह जीव न घटता है, और न बढ़ता है, इस कारण मुक्त-अवस्थामें चरम-शरीरसे कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीरप्रमाण भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं-(येन) जिस हेतु (कारणविरहितः) हानि-वृद्धिका कारण शरीर नामकर्मसे रहित हुआ (शुद्धजीवः) शुद्धजीव (न वर्धते क्षरति) न तो बढ़ता है, और न घटता है, (तेन) इसी कारण (जिनवरा:). जिनेन्द्रदेव (जीवं). जीवको (चरमशरीरप्रमाणं) चरमशरीर प्रमाण (ब्रुवन्ति) कहते हैं ।
भावार्थ-यद्यपि संसार अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण शरीरनामा नामकर्म है, उसके सम्बन्धसे जीव घटता है, और बढता है; जब महामच्छका शरीर पाता है, तब तो शरीरकी वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारता है, तब घट जाता है, और मुक्त अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण जो नामकर्म उसका अभाव होनेसे जीवके
प्रदेश न. तो सिकुड़ते हैं, न फैलते हैं, किन्तु चरमशरीरसे कुछ कम पुरुषाकार ही रहते .. हैं, इसलिये शरीरप्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ। यहां कोई प्रश्न करे, कि जब तक
दीपकके आवरण है, तब तक तो प्रकाश नहीं हो सकता है, और जब उसके रोकने
वालेका अभाव हुआ, तब प्रकाश विस्तृत होकर फैल जाता है, उसीप्रकार मुक्तिअवस्थामें . आवरणके अभाव होनेसे आत्माके प्रदेश लोक-प्रमाण फैलने चाहिये, शरीर-प्रमाण ही क्यों रह गये ? . .
उसका समाधान यह है, कि दीपकके प्रकाशका जो विस्तार है, वह स्वभावसे होता है, परसे नहीं उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन वगैरहसे अथवा दूसरे आवरणसे आच्छादन किया गया, तब वह प्रकाश संकोचको प्राप्त हो जाता है, जब आवरणका अभाव