________________
[ ३८ ] - - देहे वसन्तमपि हरिहरा अपि यम् अद्यापि न जानन्ति । .
परमसमाधितपसा विना तं परमात्मानं भणन्ति ॥४२॥
आगे वह शुद्धात्मा यद्यपि देहमें रहता है, तो भी परमसमाधिके अभावसे हरिहरादिक सरीखे भो जिसे प्रत्यक्ष नहीं जान सकते, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं- (देहे) परमात्मस्वभावसे भिन्न शरीरमें (वसंतमपि) अनुपचरितअसदुभूतव्यवहारनयकर बसता है, तो भी (यं) जिसको (हरिहरा अपि) हरिहर सरीखे चतुर पुरुष (प्रच अपि) अबतक भी (न जानंति) नहीं जानते हैं। किसके विना (परमसमाधितपसा विना) वीतरागनिर्विकल्प नित्यानन्द अद्वितीय सुखरूप अमृतके रसके आस्वादरूप परमसमाधिभूत महातपके विना नहीं जानते, (तं) उसको (परमात्मानं) परमात्मा (भणंति) कहते हैं । यहां किसीका प्रश्न है, कि पूर्वभवमें कोई जीव जिनदीक्षा धारणकर व्यवहार निश्चयरूप रत्नत्रयकी आराधनाकर महान् पुण्यको उपार्जन करके अज्ञानभावसे निदानबन्ध करनेके बाद स्वर्ग में उत्पन्न होता है, पीछे आकर मनुष्य होता है, वही तीन खण्डका स्वामी वासुदेव (हरि) कहलाता है, और कोई जीव इसी भवमें जिनदीक्षा लेकर समाधिके बलसे पुण्यबन्ध करता है, उसके बाद पूर्वकृत चारित्रमोहके उदयसे विषयोंमें लीन हुआ रुद्र (हर) कहलाता है। इसलिये वे हरिहरादिक परमात्माका स्वरूप कैसे नहीं जानते ? . :
__ इसका समाधान यह है, कि तुम्हारा कहना ठीक है । यद्यपि इन हरिहरादिक महान् पुरुषोंने रत्नत्रयकी आराधनाकी, तो भी जिस तरहके वीतराग-निर्विकल्प-रत्नत्रयस्वरूपसे तद्भव मोक्षे होता है, वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुमा, सरागरत्नत्रय हुआ है, इसीका नाम व्यवहाररत्नत्रय है । सो यह तो हुआ, लेकिन शुद्धोपयोगरूप वीतरागरत्नत्रय नहीं हुआ, इसलिये वीतरागरत्नत्रयके धारक उसी भवसे मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते. । इसीलिये परम शुद्धोपयोगियों की अपेक्षा इनको नहीं जाननेवाले कहा गया है, क्योंकि जैसे स्वरूपके जाननेसे साक्षात मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते । यहां पर सारांश यह है, कि जिस साक्षात् उपादेयं शुद्धांत्माको तद्भव मोक्षके साधक महामुनि ही आराध सकते हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चितवन करने योग्य है ॥४२॥ .. .
अथोत्पादव्ययपर्यायार्थिकनयेन संयुक्तोऽपि यः द्रव्याथिकनयेन उत्पादव्ययरहितः स एव परमात्मा निर्विकल्पसमाधिवलेन जिनवरेंदेहेऽपि दृष्ट इति निरूपयति