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( ध्यायते ) चितवन किया जाता है, (सः परमात्मा देवः) वह परमात्मदेव (ध्येयः ) आराधने योग्य है, दूसरा कोई नहीं ।
भावार्थ - जो परमात्मा मुनियोंको ध्यावने योग्य कहा है, वही शुद्धात्मज्ञान के वैरी आर्त रौद्र ध्यानकर रहित धर्म ज्ञानी पुरुषोंको उपादेय है, अर्थात् जब आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों छूट जाते हैं, तभी उसका ध्यान हो सकता है || ३६॥
rasi शुद्ध स्वभावो जीवो ज्ञानावरणादिकर्महेतुं लब्ध्वा सस्थावररूपं जगज्जनयति स एव परमात्मा भवति नान्यः कोऽपि जगत्कर्ता ब्रह्मादिरिति प्रतिपादयतिजो जिउ उ लहे हि जगु बहु-विहउ जणेइ । लिंगत्तय- परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ||४०||
यो जीवः हेतुं लब्ध्वा विधि जगत बहुविधं जनयति । लिङ्गत्रयपरिमण्डितः स परमात्मा भवति ॥ ४० ॥
आगे जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव जीव ज्ञानावरणादिकर्मो के कारणसे त्रस स्थावर जन्मरूप जगत्को उत्पन्न करता है, वही परमात्मा है, दूसरे कोई भी ब्रह्मादिक जगकर्ता नहीं हैं, ऐसा कहते हैं - (यः) जो ( जीवः) आत्मा (विधि हेतुं ) ज्ञानावरणादि कर्मरूप कारणोंको ( लब्ध्वा ) पाकर ( बहुविधं जगत् ) अनेक प्रकार के जगत्को ( जनयति) पैदा करता है, अर्थात् कर्मके निमित्तसे त्रस स्थावररूप अनेक जन्म घरता है ( लिंगत्रयपरिमंडितः ) स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंग इन तीन चिन्होंकर सहित हुआ ( स ) वही ( परमात्मा ) शुद्धनिश्चयकर परमात्मा (भवति) है, अर्थात् अशुद्धपनेको परिणत हुआ जगतमें भटकता है, इसलिये जगतका कर्त्ता कहा है, और शुद्धपनेरूप परिणत हुआ विभाव (विकार) परिणामों को हरता है, इसलिये हर्त्ता है । यह जीव ही ज्ञान अज्ञान दशाकर कर्ता हर्त्ता है और दूसरे कोई भी हरिहरादिक कर्त्ता हर्त्ता नहीं है ।
भावार्थ–पूर्व जो शुद्धात्मा कहा था, वह यद्यपि शुद्धनयकर शुद्ध है, तो भी अनादिसे संसारमें ज्ञानावरणादि कर्म बंधकर ढका हुआ वीतराग, निर्विकल्प सहजानन्द, अद्वितीयसुखके स्वादको न पानेसे व्यवहारनयकर त्रस और स्थावररूप स्त्री पुरुष नपुंसक लिंगादि सहित होता है, इसलिये जगत्कर्त्ता कहा जाता है अन्य कोई भी दूसरोंकर कल्पित परमात्मा नहीं है । यह आत्मा ही परमात्माकी प्राप्तिके शत्रु तीन वेदों (स्त्री