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लिंगादि ) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प- जालोंको निर्विकल्पसमाधि से जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष सुखका कारण होनेसे उपादेय हो जाता है ||४०||
अथ यस्य परमात्मनः केवलज्ञानप्रकाशमध्ये जगद्वसति जगन्मध्ये सोऽपि वसति तथापि तद्रूपो न भवतीति कथयति -
जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग अब्भंतरि जो जि । जगि जि वसंतु वि जगु जि ए वि सुखि परमप्पउ सो जि ॥ ४१ ॥
यस्य अभ्यन्तरे जगत् वसति जगदभ्यन्तरे य एव ।
जगति एव वसन्नपि जगत् एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥४१॥
आगे जिस परमात्माके केवलज्ञानरूप प्रकाश में जगत् बस रहा है, और जगत् के ' मध्य में वह ठहर रहा है, तो भी वह जगत्रूप नहीं है, ऐसा कहते हैं - (यस्य) जिस आत्मारामके (अभ्यंतरे) केवल ज्ञान में (जगत् ) संसार ( वसति) बस रहा है, अर्थात् प्रतिबिम्बित हो रहा है, प्रत्यक्ष भास रहा है, (जगदभ्यंतरे) और जगत् में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है । वह ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय है, (जगति एव वसन्नपि ) संसार में निवास करता हुआ भी ( जगदेव नापि ) निश्चयनयकर किसी जगत्की वस्तुसे तन्मय ( उस स्वरूप ) नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थको क्षेत्र देखते हैं, तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, ( तमेव ) उसीको (परमात्मानं ) परमात्मा ( मन्यस्व) हे प्रभाकरभट्ट, तू जान ।
भावार्थ - जो शुद्ध, बुद्ध सर्वव्यापक सबसे अलिप्त, शुद्धात्मा है, उसे वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर ध्यान कर । जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्य समयसार है, उसका कारण वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप निजभाव ही उपादेय हैं ||४१||
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अथ देहे वसन्तमपि हरिहरादयः परमसमाधेरभावादेव यं न जानन्ति स परमात्मा भवतीति कथयन्ति -
देहि वसंत विहर-हर वि जं अज वि मुरांति । परम- समाहितवेण विणु सो परमप्पु भांति ॥४२॥
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