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भावार्थ - वही परमात्मा शुद्धात्माके वैरी मिथ्यात्व रागादिकोंके दूर होने के मिथ्यात्वरागादिक दूर नहीं हुए उनके
समय ज्ञानी जीवोंको उपादेय है, और जिनके उपादेय नहीं, परवस्तुका ही ग्रहण है ||३७||
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अथानन्ताकाशक नक्षत्र मित्र यस्य केवलज्ञाने त्रिभुवनं प्रतिभाति स परमात्मा भवतीति कथयति —
गणित वि एक्क उड्डु जेहउ भुयणु विहाइ | मुहं जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु णाइ ॥३८॥
परमात्मानमाह
गगने अनन्तेऽपि एकमुडु यथा भुवनं विभाति । मुक्तस्य यस्य पदे बिम्बितं स परमात्मा अनादिः ||३८||
आगे अनन्त आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह जिसके केवलज्ञानमें तीनों लोक भासते हैं, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं - ( यथा) जैसे ( अनंतेऽपि ) अनन्त ( गगने) आकाशमें (एकं उडु) एक नक्षत्र ( " तथा " ) उसी तरह (भुवनं) तीन लोक (यस्य ) जिसके (पदे) केवलज्ञान में (बिबितं) प्रतिबिंबित हुए (विभाति) दर्पण में मुखकी तरह भासता है, (सः) वह (परमात्मा अनादिः) परमात्मा अनादि है ।
भावार्थ - जिसके केवलज्ञानमें एक नक्षत्रकी तरह समस्त लोक अलोक भासते हैं, वही परमात्मा रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित योगीश्वरोंको उपादेय है ||३८|| अथ योगीन्द्रवृन्दयों निरवधिज्ञानमयो निर्विकल्पसमाधिकाले ध्येयुरूपश्चिन्त्यते तं
प
जोइय-विंदहिं गाणमउ जो भाइज्जइ झेउ ।
मोक्खहं कारण अवरउ सो परमप्पउ देउ ||३६||
योगिवृन्दैः ज्ञानमयः यो ध्यायते ध्येयः ।
मोक्षस्य कारणे अनवरतं स परमात्मा देवः ||३६||
आगे अनन्तज्ञानमयी परमात्मा योगीश्वरोंकर निर्विकल्पसमाधि-काल में ध्यान करने योग्य है, उसी परमात्माको कहते हैं - (यः) जो ( योगींद्रव दैः ) योगीश्वरोंकर (मोक्षस्य कारणे ) मोक्ष के निमित्त (अनवरत ) निरन्तर (ज्ञानमयः) ज्ञानमयी