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है, वह परमतत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्ग में लगे हुए हैं, सो वृथा क्लेश कर रहे हैं । इस जगह अर्थरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं, यह सारांश समझना ।।२३।।
अथ योऽसौ वेदादिविषयो न भवति परमात्मा समाधिविषयो भवति पुनरपि तस्यैव स्वरूपं व्यक्तं करोति —
केवल- दंसण- णाणमउ केवल सुक्ख सहाउ ।
केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ ||२४||
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केवलदर्शनज्ञानमयः केवलसुखस्वभावः ।
केवलवीर्यस्तं मन्यस्व य एव परापरो भावः ||२४||
आगे कहते हैं, कि जो परमात्मा वेदशास्त्रगम्य तथा इन्द्रियगम्य नहीं, केवल परमसमाधिरूप निर्विकल्पध्यानकर ही गम्य है, इसलिये उसीका स्वरूप फिर कहते हैं(यः) जो ( केवलदर्शनज्ञानमयः) केवलज्ञान केवलदर्शनमयी है, अर्थात् जिसके परवस्तुका आश्रय (सहायता) नहीं, आप ही सब बातों में परिपूर्ण ऐसे ज्ञान दर्शनवाला है, (केवल सुखस्वभावः) जिसका केवलसुख स्वभाव है, और जो (केवलवीर्यः) अनन्तवीर्य - वाला है, ( स एव) वही ( परापरभावः ) उत्कृष्ट अर्हन्तपरमेष्ठीसे भी अधिक स्वभाव - वाला सिद्धरूप शुद्धात्मा है ( मन्यस्व ) ऐसा मानो ।
भावार्थ- परमात्मा के दो भेद हैं, पहला सकलपरमात्मा, दूसरा निष्कलपरमात्मा । उनमें से कल अर्थात् शरीर सहित तो अरहन्त भगवान् हैं, वे साकार हैं, और जिनके शरीर नहीं, ऐसे निष्कलपरमात्मा विराकारस्वरूप सिद्धपरमेष्ठी हैं, वे सकल परमात्मा से भी उत्तम हैं, वही सिद्धरूप शुद्धात्मा ध्यान करने योग्य है ||२४||
मथ त्रिभुवनवन्दित इत्यादिलक्षणैर्युक्तो योऽसौ शुद्धात्मा भणितः स लोकाग्र तिष्ठतीति कथयति -
एयहिं जुत्तउ लक्खणहिं जो परु णिक्कलु देउ । .. सो तहिं विसइ परम-पइ जो तइलोयहं भेउ ||२५||