Book Title: Paiakaha Sangaha
Author(s): Manvijay, Kantivijay
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala
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पिद्विभाए सुन गिहमेगमस्थि तत्थेव । पडिकमणज्झाणसज्झायसावहाणो निसि नेसु ॥ ३१॥ केणावि कारणेणं नूणं गुरुणो भणंति इय सिट्ठी। निस्सीहियं भणिचा तं पविसइ निम्वियारमणो ॥ ३२॥ रुहिरखरंटियमहियल अणेगमीसणकरंककंकाले । सो तत्थ एगकोणं पडिलेहिअ कुणइ पडिकमणं ॥ ३३ ॥ सज्झायमह कुणंतो वक्खाणंते( णेइ) सयं पि परमत्थं । जो कुणइ जीवहिंसं सो पावह नरयदुक्खाई ॥३४ ॥ करुणारसरसियमणो जो अभयं देइ सबजीवाणं । सो लहइ विउलरिद्धिं मणिच्छियं उभयलोए वि ॥ ३५॥ एवं स्यणि सयलं सज्झायं कुणिय देसणासहियं । जा निग्गच्छइ सेट्ठी ता पुरओ नियइ नरमेगं ॥ ३६ ॥ सो संजसं पयंपइ सावय! गेहस्सिमस्स नाहो हं । मुच्छाए मरिऊणं विहिवसओ वंतरो जाओ ।। ३७ ॥ न कयं जं महकिच्चं कुडुंबलोएण भूरिभणिएण । किं बहुणा जलकरवयसरावमित्तं पि नो दिन्नं ॥३८॥ तो अहह ! दुट्ठमइणा विणासियं नियकुडुंबमखिलमवि । सुन्नमहिट्ठियमेयं गेहं मुच्छाए नडिएण ॥ ३९ ॥ दुपयं व चउप्पयं वा जं कि पि हु इत्थ पविसए कहवि । तं मारेमि अवस्सं करुणारहिओ विरसमाणं ॥ ४०॥ अञ्ज तुह देसणाए हिंसं मुणिऊण नरयदुहजणणि । मह जाओ सुहभावो ता वरसु मणिच्छियं भद्द! ॥४१॥ तो पभणइ तं सेट्ठी पओयणं नत्थि भद्द ! केणावि । एयं चिय कुणसु तुमं चएसु हिंसं दुहावासं ॥ ४२ ॥ सो आह सुहय ! हिंसा चत्त च्चिय तुज्झ देसणासवणे । अमं मग्गसु जेणं देवाण न दंसणं विहलं ॥४३॥ तो सेट्ठी सविमरिसं चिंता गुरुणो सुनाणिणो मज्झ । अञ्ज रयणीह जेहिं दिट्ठो मह भाविओ लाहो ॥४४॥ अन्नह कह पडिकमणाह कारिओ तेहिं इत्थ भूयघरे। आह सुरो किं चिंतसि बारं वारं मए
मज्झ केणावि AI
RECHANICASKARBHANGA
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