Book Title: Paiakaha Sangaha
Author(s): Manvijay, Kantivijay
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ ॐ विसइ तत्थेव ।। १०४ ॥ जयलच्छी वि हु उवविसइ मंतिपुचो य धारडो य तहि । हुं गच्छइ य भणेउं विमाणमणुपिल्लिअं गयणे ।। १०५ ।। खणमेचेणं पत्तं जयउरनयरंमि तत्थ तं कुमरं । मंतिसुओ जीवावह हत्थफंसप्पहावेण ॥१०६॥ पुट्ठाई विहसिएणं पाउन्भुयचेयषण कुमरेण । नियवुत्तंतं ताई कहंति सर्व पि दुहियाई ।। १०७ ।। मंतिसुएण रजंमि तम्मि अहिसिंचिओ तओ कुमरो। अह सूरमहीवइणा तं नयरं वासियं सत्वं ॥ १०८ । विजया वि तत्थ चिट्ठइ सो वि हु कुणइ तीए बहुभत्ति । सिरिविजयसेणपिअयमविरहे सा चिंतए दुहिया ॥ १०९ ॥ फलमेयं संजायं ममं परपाउयाइ लोहेण | जो भक्खेइ करवं विडवणं सहइ सो अहवा ॥ ११० ॥ अह विजयसेणनिवई अच्छरियं पिच्छिऊण तं मयलं । सो दिनगल्लहत्थो | अहोमुहो चिंतए दीणो ॥ १११ ।। दुट्ठाइ तीइ नीया कत्थ वि मह पिअयमा न हु मुणेमि । विरहानलतवियगी सा कह जीविस्सइ वराई १ ॥ ११२ ॥ इअ सो झंखइ निचं गहिलमणो मुक्करजवावारो । पभणेइ मयरदाहं मह दंससु पाउयाठाणं ॥११३ ।। जंपेइ मयरदाढा जयउरनयराउ पाउया एसा । आणीया इत्थ मए भमिऊणं सयलमहिवलयं ।। ११४॥ कइवयनिअलोअजुओ कुट्टिणिसहिओ य जयउरे चलिओ। वीसंभट्ठाणेसु मंतीसुं अप्पिउं रजं ॥ ११५ ॥ सो तत्थ गओ कमसो ओलक्खेऊण ज्झत्ति जयलच्छी । नियपइणो तं साहइ सो वि कुणइ तस्स पडिवत्तिं ।। ११६ ॥ अह पभणइ जयलच्छी नरनाह ! कयावि हवइ न हु सुक्खं । पररमणीलुद्धाणं तस्संगमवावडमणाणं ॥ ११७ ।। जयलच्छीए विजया समप्पिया तस्स कुणिय सम्माणं । तं गहिउं नियनयरे सो तेहिं विसजिओ पत्तो ॥११८॥ अह कुणिअ रजसुत्थं जयउरनयरंमि १ विमाणमणुपिलिङ A I ACCORECAPACHAR

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98