Book Title: Paiakaha Sangaha
Author(s): Manvijay, Kantivijay
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala
View full book text
________________
%A4%AC
ROCHOCHA
-70-10-%
पुत्तस्स । अम्हाण पच्छिमवयं गच्छिस्सइ सुक्खभावेण ।। ९३ ॥ उच्छाहबुद्धिधीरिमथरोवयारिचपुनसंपत्तो । जेणऽम्ह एस तणओ पडिपुनासो गुणावासो ॥ ९४ ॥ तस्सागममि सिट्ठी वद्धावणयं कुणेइ रिद्धीए । अह रत्तिजागराओ विसूइया तस्स संजाया ॥ ९५ ॥ नयरपहाणेहिं तओ कयोवयारे वि णेगविजेहिं । पंचतं संपत्तो समुद्ददत्तो खणेणावि ।। ९६ ।। जणणी जणओ तत्तो पुत्तगुणे सुमरिऊण जूरेइ । अंधाण व दंडसमो बन्छ ! तुम कन्थ दीसिहिसि ? ॥ ९७ ॥ अम्हाण बुड्वभावे को पुत्त ! कुणिम्सई परित्ताणं । परदुक्खमजाणंतो कत्थ गओ चइय सयणजणं ॥ ९८ ॥ जइ थोपदिणेहि चिय अम्हाणं गिहाउ चिंतियं गमणं । ता कीस पुत्त ! तुमयं उप्पन्नो इत्थ पढमं पि ।। ९९ ।। किं वच्छ ! तुम जाओ अइनिहर
माणसो खणेणावि । विलवंताण वि अम्हाण जेण न हु उत्तरं देसि ।। १०० ॥ विलवह बहुप्पयारं कणयवई असहणिजका दुक्खभरा । एयागिणिं चइत्ता में नाह ! गओ तुमं कत्थ ? ॥१०१ ॥ पाणेमविरहियाणं जम्मो इत्थीण निष्फलु चेय ।
भोगुवभोगसुहाई जेणं दूरेण जायाई ।। १०२ ।। दुक्खाण परित्ताणं कुणिस्सई को तए विणा नाह ! । को वा सुललियवयणं वियरिस्सइ मज्झ दुहियाए ॥ १०३ ।। पाणप्पिये ! किं तुमयं रुट्ठो सि ? न देसि जेण पडिबयणं । सुमरेमि किं पि नो नियमवराहं तह वि खमसु तुमं ।। १०४ ॥ उत्तमजणाण कोवो पणिवायंतो हवेइ खलु जम्हा । पाणेस ! एगवारं देसु तुम मज्झ पडिवयणं ।। १०५ ।। रे ! दिव! तए पढमं नो गहिया कह अहं अकरुणेणं । जेण न हविज कइयावि भायणं एरिसदुहाणं ॥१०६॥ जणएहि य मयकिच्चं सयलं पि कयं समुद्ददत्तस्म । तह वि न गच्छइ ताणं दुक्खभरो कहवि हिययाओ॥१०७।। अह धम्मघोमपहुणो पत्ता गेहमि मुणियपरमत्था । पणमद सागरदत्तो उबवेसिय आसणे पवरे ॥ १०८ ।। सोयभरुल्लिय.
%%ALoCo
--
4-%-
-)

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98