Book Title: Paiakaha Sangaha
Author(s): Manvijay, Kantivijay
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala

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Page 90
________________ पाइअकहासंगहे। ॥४० ॥ ताई वि मुणियमणाई सम्माणं कुणिय परियणं दाउं । भत्तीइ कयपणाम दिन्नासीसं विसर्जति ॥ ९९ ॥ सुधणुअमचं नमिउं || भावनाविजयवईपिययमं तहा गहियं (उ)। निग्गच्छइ नयरीए बहुबुद्धी बहुजणसमेओ ॥१००॥ पत्तो कमेण रनंमि तत्थ पिक्खेइ प्रभावे मुणिवरं एगं । काउस्सग्गेण ठियं निम्मलचित्तो विचिंतेइ ॥ १.१॥ निम्ममनिरहंकारो गयलोहो चत्तसबवावारो । परिह बहुबुद्धिरियगिहावासो धन्नो एसो च्चिय मुर्णिदो ॥ १०२॥ गिहवासंमि वसंतो जंन कुणइ नत्थि किं पि तं लोए । जेणं विजय कथानकम्। नरिंदो वि गंजिओ लोहसुहडेणं ॥ १०३ ॥ तह गिहवासाउ च्चिय जाओ देसंतरो दुहावासो । तम्हा मुणिणो धन्ना केण वि न पओयणं जाण ।। १०४ ॥ इय भावितो भावणमणहं मग्गे कमेण गच्छंतो। संपत्तो नियगेहे जणयाण समप्पिउं हारं |॥ १०५ ॥ पणमेइ तायचलणे विजयवईभजसंजुओ कुमरो। निबूढनियपइन्नं जणओ तं कुणइ उच्छंगे ॥ १०६ ॥ ४. अह तं भणंति ताई हरिसभरुल्लसियअंसुनयणाई । रूसंति उत्तमजणा गुरूण किं रुक्खसिक्खाए ? ॥ १०७॥ दाकि वच्छ ! तुमाउ चिय हारो अम्हाण वल्लहो एसो । जं देसंतरदुक्खं सहियं एमेय कुमर! तए । १०८ ॥ तुह विरहे जं दुक्खं सहियं अम्हेहिं एत्तियं कालं । तं वइरीण वि नणं हवेउ मा कहवि कइयावि ॥ १०९ ॥ ता पुत्त ! कत्थ तुमए लद्धो एसो कई वरो हारो। परिवारेण कहिओ वित्थरओ सयलवुत्तो॥११०॥ बहुबुद्धिणा वि जियसत्तुनिवइणो कहिय सयलवुत्ततं । हारो मुक्को चलणेसु तेण तस्सेव सो दिनो ॥ १११ ॥ नमिऊण महीनाई समागओ नियगिहमि सो सई । सिद्धिधणावहलोयं विसजए कुणिय पडिवति ॥ ११२ ॥ विजयवईइ समेओ संसारसुहाई सेवए निचं । गमइ य सो बहुकालं भावितो मावणं एवं ॥ ११३ ।। अरसं विरसं रुक्खं सुजितु सहति विविहउघसग्गे । संसारवारिरासिं तरंति तारिंति अबे वि ॥४०॥

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