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बड़े-बड़े रचे जाने लगे तो वे केवल गेय-काव्य रह गये, खेलने के नहीं। साधारण जनता, अपनी परिचित स्वरलहरी और बोल-चाल की भाषा मे जो रचनाएं की जाती है उनको सरलता से अपना लेती है। प्राकृत संस्कृत भाषा मे प्राचीन विस्तृत साहित्य होने पर भी उससे लाभान्वित होना जन साधारण के लिए सम्भव नहीं था, इसलिए बहुत कुछ उनके आधार से और कुछ लोककथाओं को धार्मिक वाना पहना कर जैन कवियों ने सरल राजस्थानी भाषा मे प्रचुर चरित काव्य बनाए। प्रातः, मध्यान्ह और रात्रि मे उन्हीं रास, चौपाइयो को गाकर व्याख्या की जाती थी। लोकगीतों की प्रचलित देशियों मे उनकी ढालें वनाई जाने से जनता उन्हे भाव-विभोर होकर सुनती और उन चरित्र-काव्यो से मिलने वाली शिक्षाओ को अपने जीवन का ताना बाना बना लेती। फलतः उस समय का लोक-जीवन इन रचनाओं से बहुत ही प्रभावित था। नीति, धर्म और सदाचार की प्रेरणा देने मे इन रचनाओं ने बहुत बड़ा चमत्कार दिखाया।
अठारहवीं शताब्दी में अनेक राजस्थानी जैन कवि हुए हैं जिन मे महोपाध्याय लब्धोदय की साहित्यसेवा चालीस पचास वर्षों तक निरन्तर चलती रही। उन्होने छः उल्लेखनीय बड़े रास वनाए। लघु-कृतिया भी अनेक वनाई होगी किन्तु वे या तो नष्ट हो गई या किसी भंडारों में छिपी पड़ी होंगी। लब्धोदयजी का विहार मेवाड़ प्रदेश में अधिक हुआ