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गोरा बादल चौपई]
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नेम नीर को लियो, वीन देख्याँ पदमावत, महा-मोह-वस भयो, रहै असी विध रावत । जब निसा रही इक-दोय घडी, तब सिकार-उद्दम कियो, राजा रतनसेन असवार हुय, राघव चेतन सँग लियो ।।२३।।
वन के भीतर खेलताँ, तृखा वियापी तेम, विन देख्याँ पदमावती, नल पीवण को नेम ॥२४॥
कवित्त तब राघव चित लाय, सरस पूतली सँवारी, त्रिपुरा की कर कृपा, रूप पदमावति नारी । भेख भाव बहु करी, जंध पर तील बनाया, देख राय भयो रोस, पाप सन भीतर लाया । विना रम्याँ पदमावती, तील स क्यूकर जाणियो, मारूं न विप्र, काढ़ नगर, यह सुभाव मन आणियो ।।२।। घरि आयो राजान, विप्रकुदिया निकारा, राघव तिसही समै, वेस वैरागी धारा। भगवें वेस सरीर, नीर भर लिया कमंडल, जंत्र वजावै जुगत, जोग-तत रहै अखडल। दिल्ली सु आय प्रापत भयो, रह उद्यान वन खंड सिर, पातसाह तिहां अलावदी, कर राज सिर नर सुथिर ॥२६॥ एक दिवस सीकार साह खेलत तिहाँ आयो, राघव तिसही समै जुगत कर जंत्र बजायो।