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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सबन्ध खुमाण रासो] [१४६
मेर मरंत सवही रहीइ धरम, धर रक्खहि रक्खहि धनी। छटहें हठ सुलतान चित, जब मृत्यु सुनिहें पदमनी ॥६८॥ कहें पदमनि सुन स्याम, राम रघु सीता वल्लभ । । दशरथ सुन हो तुज झ, तुमहि ल[ज जा के ओठंभ।
औरन कोई इलाज, आज सकट दिन आयो। धरही चितन मे दया, करहुं सतन को भायो। असुराण राण पकड्यो रयण, चाहे मुझ मन मे चहू। अनाथ नाथ असरण सर[ ]ण, राख राख एकी कहुँ
।
सवैया
कैसें तुम मृगणी के गन निगणे भरथ,
के में तुम भीलणी के झूठे फल खाये थे। केंसें तुम द्रोपदी की टेर सुनि द्वारिका मे,
कसें गजराज काज नाग पर धाए थे। कैसे तुम भीखम को पण राख्यो भारथ मे ?
कसें राजा उग्रसेन बंध थे छोराए थे ।। मेरी वेर कान तुम कान वद वैठ रहें,
दीनवयु दीनानाथ काहि कु कहाए थे ॥७॥ ,
पंखी इकलो वन्न मे, सो पारधी पचास । अबके जलहो उगरें, अल्] ला तेरी आस ॥१॥ सुभट भए सतहीन सत्र, आलिम पकड्यो राज । साई तेरे हाथ हैं, म्हो अबले की लाज ॥७२॥