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( ४१ ) त्रिपुरा शक्ति तणे सुपसाय, रच्यो खण्ड दूजो कविराय । तपगच्छ गिरुआ गणधार, सुमतिसाधु वंशे सुखकार ।। पडित पद्मविजय गुरुराय, पटोदयगिरि रवि कहेवाय । जयबुध शातिविजय नो शिष्य, जपे दौलत मनह जगीश।।"
अर्थात्-कवि त्रिपुरादेवी का भक्त था और तपागच्छ के सुमतिसाधुसूरि की परम्परा में पद्मविजय शिष्य जयविजय शि० शान्तिविजय का शिष्य था।
खुमाण रासो (अपूर्ण) मे खुमाण से लेकर राजसिंह तक का ही विवरण मिलता है, पर इसके प्रथम खण्ड के अन्तिम दोहे मे महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय ) तक का उल्लेख होने से इसकी रचना सं० १७६७ से सं० १७६० के बीच मे हुई निश्चित है।
विउ सागउ अमरेस सुत, सीसोद्यो सुवियाण ।
राण पाट प्रतपे रिधू, मन हेला महिराण ।। खुमाण रासो के छ? खण्ड मे रत्नसेन-पद्मिनी और गोरा बादल का वृतान्त आया है अतः उसे इस ग्रंथ के [पृ० १२६ से १८१ ] में प्रकाशित किया गया है। यह अंश स्वामी नरोत्तमदासजी द्वारा प्राप्त श्री श्रोत्रिय के की हुई प्रेस कापी से लेकर दिया गया है अतः इसके लिए आदरणीय स्वामीजी और ‘श्रोत्रियजी धन्यवादाह है।