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राणा स्वदेश के लिए रवाने हुआ। सिंहलपति से प्रेमपूर्वक विदा लेकर राणा स्वदेश लौटा।
इधर चित्तौड़ में राणा के एकाएक चले जाने से चिन्तित वीरभाण ने माता से सत्य वृतान्त ज्ञात किया और लोगों के समक्ष राणा के जाप में बैठने की प्रसिद्धि कर स्वयं राज काज चलाने लगा। लोगों को जव छः मास से भी अधिक बीत जाने पर राणा के दर्शन न हुए तो नाना प्रकार की आशंकाएँ उठ खड़ी हुई। इसी समय राणा रतनसेन दो हजार घोड़े, दो हजार हाथी एवं पालकियों के परिवार से परिवृत चित्तौड़ के निकट पहुंचा। पद्मिनी की स्वर्ण-कलशों वाली पालकी, मध्य मे सुशोभित थी। दूर से विस्तृत सेना आती हुई देखकर परदल की आशका से वीरभाण ने सैनिक तैयारी प्रारम्भ कर दी। इतने ही मे राणा का पत्र लेकर एक दूत राजमहल मे पहुँचा, सारा वृतान्त ज्ञात कर चित्तौड़ में सर्वत्र आनन्द छा गया और स्वागत के लिए जोर-शोर से तैयारियाँ होने लगी।
स्थान स्थान मे मोतियों से वधाते हुए, ध्वजा पताका सुशोभित उल्लासपूर्ण वातावरण मे महाराणा ने चित्तौड मे प्रवेश किया। रानी प्रभावती को राणाने अपनी प्रतिज्ञापूर्ण कर दिखा दी। राणाने पद्मिनी के लिए विशाल एवं सुन्दर महल प्रस्तुत किया, जिसमें वह अपनी सखियों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी। महाराणा अहर्निश पद्मिनी के प्रेमपाश में बँधा हुआ