Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ नियमसार अनुशीलन है, सहज परमानन्द का पूर जहाँ निकट है; वहाँ राग-द्वेष विकृति करने में समर्थ नहीं हैं। उस शाश्वत समरसभावरूप आत्मतत्त्व में विधि क्या और निषेध क्या ? तात्पर्य यह है कि उसे राग-द्वेष नहीं होते हैं। इस छन्द का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "जब मुनियों के अन्तर में सहज परमानन्दमय आत्मतत्त्व निकट वर्तता है, तब उनके राग-द्वेषरूप विकृति उत्पन्न ही नहीं होती। रागद्वेष होते हैं, परन्तु वे विकृति नहीं करते ह्र ऐसा नहीं है; परन्तु स्वरूप का आलम्बन करने से राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते। ह्र इसका नाम सामायिक है। आत्मा नित्य समरसमय शाश्वत तत्त्व है, उपशान्त रस का समुद्र है। उसमें विधि क्या और निषेध क्या? 'यह करना है और यह छोड़ना है' ह ऐसे विकल्प भी सहज समरसी आत्मतत्त्व में नहीं हैं। इसलिए उस सहजतत्त्व में लीन मुनियों के विधि-निषेध के विकल्परहित साम्यभावरूप सामायिक होता है। स्वरूप में स्थिर होते ही ग्रहण करने योग्य ऐसे निजस्वरूप का ग्रहण हो गया और छोड़ने योग्य ह्र ऐसे राग-द्वेष छूट गये। अतः स्वरूप में विधि-निषेध का क्या काम रहा। आत्मा के आहार का ग्रहण-त्याग तो है ही नहीं. परन्त आहार के ग्रहण-त्याग का विकल्प भी आत्मा में नहीं है। यह करने लायक हैं' ऐसा राग तथा 'यह करने लायक नहीं है' ऐसा द्वेष ह्न दोनों ही वस्तु के स्वरूप में नहीं है।” _ 'यह ऐसा है या हमें ऐसा करना चाहिए' ह इसप्रकार के विकल्प विधि संबंधी विकल्प हैं और यह ऐसा नहीं है या हमें ऐसा नहीं करना चाहिए' ह इसप्रकार के विकल्प निषेध संबंधी विकल्प हैं। यह आत्मा स्वभाव से तो विकल्पातीत है ही और पर्याय में भी विकल्पातीतदशा को भी प्राप्त हो गया हो तो फिर उसमें विधि-निषेध संबंधी विकल्पों को अवकाश ही कहाँ रहता है ?||२१३।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६१-१०६२ २ . वही, पृष्ठ १०६२ नियमसार गाथा १२९ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि जो आर्त्त और रौद्रध्यान से रहित है; उसे सामायिक सदा ही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र जो दु अट्टं च रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२९ ।। (हरिगीत) आर्त एवं रौद्र से जो सन्त नित वर्जित रहें। उन आत्मध्यानी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१२९।। जो आर्त और रौद्रध्यान को सदा छोड़ता है; उसे सामायिक व्रत स्थायी है ह्र ऐसा केवली शासन में कहा गया है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “यह आर्त और रौद्रध्यान के परित्याग द्वारा सनातन सामायिक व्रत के स्वरूप का कथन है। नित्य निरंजन निजकारणपरमात्मा के स्वरूप में नियत, शुद्धनिश्चय परमवीतराग सुखामृत के पान में परायण जो जीव तिर्यंच योनि, प्रेतवास व नरकादि गति की योग्यता के हेतुभूत आर्त्त व रौद्र ह्र इन दो ध्यानों को नित्य छोड़ता है; उसे वस्तुतः केवलदर्शन सिद्ध शाश्वत सामायिक व्रत है।" स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “सामायिक तो एकमात्र आत्मस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न हुआ वीतरागी समभाव ही है; परन्तु उसका वर्णन परपदार्थों के त्याग की अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूप में किया गया है। __इससे पिछली १२८वीं गाथा में राग-द्वेष भाव के उत्पन्न न होने को सामायिक कहा था और अब यहाँ आर्त-रौद्र ध्यान के त्याग से उत्पन्न वीतरागी समभाव को सामायिक कहा जा रहा है।" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६३ 15

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