Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ नियमसार गाथा १२८ गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२८ ।। (हरिगीत) राग एवं द्वेष जिसका चित्त विकत न करें। उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१२८॥ जिसे राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करते; उसे सामायिक स्थायी है ह्र ऐसा केवली के शासन में कहा है। टीकाकार मुनिराज इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ यह कह रहे हैं कि राग-द्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता, समता, अकंपता, अक्षुब्धता होती है। __ पापरूपी अटवी (भयंकर जंगल) को जलाने में अग्नि समान जिस परम वीतरागी संयमी को राग-द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करते; उस पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रहधारी आनन्द के अभिलाषी जीव को सामायिक नाम का व्रत शाश्वत है ह्र ऐसा केवलियों के शासन में प्रसिद्ध है।" इस गाथा और उसकी टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकतारूप समाधि ही सामायिक है। और ऐसा सामायिक उन्हें होता है. जिन्हें राग-द्वेषरूपी विकति उत्पन्न नहीं होती। सहज स्वभाव में स्थिर होने पर राग-द्वेष भाव उत्पन्न ही नहीं होते। और राग-द्वेष का उत्पन्न नहीं होना ही सामायिक है। यहाँ जो अपरिस्पंदता अर्थात् स्थिरतारूप समताभाव कहा है; वह राग-द्वेष के अभावरूप अपरिस्पंदता की बात जानना, योगजनित अपरिस्पंदता की नहीं। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०५९ गाथा १२८ : परमसमाधि अधिकार जिन संयमी वीतरागी मुनि के राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते, उन महा-आनन्द के अभिलाषी जीवों को ही सामायिक व्रत शाश्वत है। उनके ऐसी अतीन्द्रियता प्रगट हो गई है कि उन्हें पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र परिग्रह है। जिनके आत्मा में राग-द्वेषरूप विकृति नहीं है और देह की दिगम्बर दशा में भी विकृति नहीं है तू ऐसे महामुनि के स्थायी सामायिक होता है। ह्र ऐसा केवली भगवान के शासन में प्रसिद्ध है। श्रावक के भी राग-द्वेष रहित चैतन्यस्वभाव की निर्विकल्प प्रतीति पूर्वक जितना भाव प्रगट होता है, उतना सामायिक है; परन्तु चैतन्य की प्रतीति बिना मात्र राग को केवली के शासन में सामायिक नहीं कहा गया है।" इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि जिन वीतरागी सन्तों को राग-द्वेष भाव, विकृति उत्पन्न नहीं करते; उन्हें सदा सामायिक ही है।।१२८।। इस गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रान्ता ) रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थों ज्ञानज्योति:प्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे। आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधि: को निषेधः ।।२१३॥ (रोला) किया पापतम नाश ज्ञानज्योति से जिसने। परमसुखामृतपूर आतमा निकट जहाँ है। राग-द्वेष न समर्थ उसे विकृत करने में। उस समरसमय आतम में है विधि-निषेध क्या ||२१३|| जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूप घोर अंधकार का नाश किया १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६०

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 165