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नियमसार अनुशीलन सम्यग्दृष्टि आदि समस्त धर्मात्माओं के ज्ञानगोचर है, इन्द्रिय गोचर नहीं है।
इस समाधि अधिकार में सामायिक का वर्णन करके यह बता दिया है कि समाधि और सामायिक दो भिन्न-भिन्न नहीं हैं, परन्तु एक ही हैं। चैतन्य को लक्ष्य में लेकर उसमें एकाग्र होने पर जो परम वीतरागी शान्ति का अनुभव होता है, वही सामायिक है और वही समाधि (समता) है। २"
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि लोक में तो अघ पाप को कहते हैं, पर आप यहाँ अघ का अर्थ पुण्य-पाप के भाव कर रहे हैं। इसका क्या कारण है ?
यद्यपि लोक में अघ शब्द का अर्थ मात्र पाप किया जाता है; तथापि जिसप्रकारक का अर्थ पृथ्वी, ख का अर्थ आकाश होता है; उसीप्रकार घ का अर्थ भी आत्मा होता है। अतः आत्मा के आश्रय से उत्पन्न वीतरागभाव के अभावरूप शुभाशुभरागरूप पुण्य पाप के भाव अघ कहे जाते हैं। इसप्रकार पुण्य-पाप ह्र दोनों अघ हैं।
इसप्रकार इन आठ छन्दों में अत्यन्त भावविभोर होकर सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव निजकारणपरमात्मा के आश्रय की भावना व्यक्त कर रहे हैं ।। २१०- २११ ॥
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०५१
२. वही, पृष्ठ १०५१
प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता स्वयं है। परिणमन उसका धर्म है। अपने परिणमन में उसे परद्रव्य की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है। नित्यता की भाँति परिणमन भी उसका सहज स्वभाव है अथवा पर्याय की कर्ता स्वयं पर्याय है। उसमें तुझे कुछ भी नहीं करना है अर्थात् कुछ भी करने की चिन्ता नहीं करना है। अजीवद्रव्य पर में तो कुछ करते ही नहीं, अपनी पर्यायों को करने की भी चिन्ता नहीं करते, तो क्या उनका परिणमन अवरुद्ध हो जाता है ? नहीं, तो फिर जीव भी क्यों परिणमन की चिन्ता में व्यर्थ ही आकुलव्याकुल हो ? ह्न क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ- २८
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नियमसार गाथा १२७
इस गाथा में भी यही बता रहे हैं कि एकमात्र आत्मा ही उपादेय है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
जस्स सणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइगं ठाड़ इदि केवलिसासणे ।। १२७ ।। ( हरिगीत )
आतमा है पास जिनके नियम-संयम-तप विषै ।
आत्मदर्शी संत को जिन कहें सामायिक सदा ।। १२७ ।। जिसे संयम में, नियम में, तप में आत्मा ही समीप है; उसे सामायिक स्थायी है ह्र ऐसा केवली के शासन में कहा है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यहाँ इस गाथा में भी आत्मा ही उपादेय है ह्न ऐसा कहा गया है। बाह्य प्रपंच से पराङ्गमुख और समस्त इन्द्रियव्यापार को जीतनेवाले जिस भावी जिन को पापक्रिया की निवृत्तिरूप बाह्य संयम में; काय, वचन और मनोगुप्तिरूप समस्त इन्द्रियव्यापार रहित अभ्यन्तर संयम में; मात्र सीमित काल के नियम में; निजस्वरूप में अविचल स्थितिरूप चिन्मय परमब्रह्मस्वरूप में निश्चल आचार में; व्यवहार से विस्तार से निरूपित पंचाचार में; पंचमगति के हेतुभूत, सम्पूर्ण परिग्रह से रहित, समस्त दुराचार की निवृत्ति के कारणभूत परमतपश्चरण में परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त निजकारणपरमात्मा सदा समीप है; उन परद्रव्य से पराङ्गमुख परम वीतराग सम्यग्दृष्टि एवं वीतराग चारित्रवन्त को सामायिक व्रत स्थायी है ऐसा केवलियों के शासन में कहा है।"
इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
" तात्पर्य यह है कि अभ्यन्तर संयम तो निज कारणशुद्धात्मा की समीपता- सन्निकटता में होता ही है, परन्तु बाह्यसंयम भी निज