Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ वीरशैव धर्म मे मृत्यु का विचार 19 इस श्लोक में देव, मानव, जलचर, विहंगम, पशु, सरीसृप और वृक्षादि वनस्पति इस प्रकार सात जन्मों का जिक्र करके इन सात जन्मों को चौरासी लाख योनियों में विभाजित किया गया है। उपरोक्त स्कंद पुराण के आधार पर देव योनि सोलह लाख, मानव योनि नौ लाख, जलचर योनि दस लाख, सर्प और सजातीय योनि ग्यारह लाख, विहंगम योनि दस लाख, चतुष्पाद योनि दस लाख और वनस्पतियों की योनि अट्ठारह लाख, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख प्रकार की योनि होती हैं। इन योनियों के द्वारा जीवात्मा को जीवन.यात्रा करनी पड़ती है। इन विभिन्न योनियों में जीवात्मा के जन्म लेने का मुख्य कारण होता है उसका प्रारब्ध कर्म / प्रारब्ध कर्म के भोग पूर्ण होने तक प्रत्येक जीव को उन-उन स्थूल शरीरों में रहना पड़ता है। प्रारब्ध कर्म का क्षय होते ही स्थूल शरीर को त्याग देना पड़ता है। स्थूल शरीर के इस त्याग को ही मरण कहते हैं। मृत्यु-के समय में प्रत्येक व्यक्ति के स्थूल शरीर से पंच कर्मेन्द्रिय, पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि इन सत्रह तत्त्वरूपी जो सूक्ष्म शरीर होता है उससे युक्त जीवात्मा स्थूल शरीर को छोड़कर चला जाता है। प्रत्येक मनुष्य स्थूल शरीर को बार-बार बदलता रहता है। लेकिन उसका जो सूक्ष्म शरीर होता है वह उसकी मुक्तिपर्यन्त एक ही रहता है। सूक्ष्म शरीर के सत्रह तत्त्वों में प्राण को ही मुख्य माना गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में प्राण की ज्येष्ठता और श्रेष्ठता के बारे में एक सुंदर विश्लेषण, कथा के रूप में, किया गया है। पंच कर्मेन्द्रिय, पंच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि इन बारह तत्त्वों में से कोई भी तत्त्व दूसरे शरीर को छोड़ने पर शरीर का पूर्णरूपेण अमंगल नहीं दिखाई देता है, किंतु जब शरीर से पंच प्राण निकल जाते हैं तो सभी इन्द्रियों का व्यवहार बंद हो जाता है और शरीर भी अमंगल और अशुचि हो जाता है। इसलिए जीवन का आधार प्राण है, उस प्राण के विछोह को ही प्रायः मृत्यु मानते हैं। “प्राणानाम तनुनिष्क्रांतिर मरणं” प्राण वियोगः जीवात्मा के प्राण का संयोग और प्राण का वियोग ये दोनों उसके अदृष्ट अर्थात् प्रारब्ध कर्म के ऊपर निर्भर रहता है। शास्त्रों के बताए गये जन्म-मरण, क्षुधा, तृषा और सुख-दुःख इन षड्रमियों में जन्ममरण को स्थूल शरीर का धर्म मानते हैं। सुख-दुःख को अन्तःकरण का धर्म मानते हैं। इसी तरह क्षुधा और तृषा को प्राण के धर्म मानते हैं। अतः मृत्यु अथवा मरण यह स्थूल शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। जन्मे हुए स्थूल शरीर का मरण तो स्वाभाविक होता है। अतः हमारे देश के दार्शनिकों ने मरण को सहज स्वीकार कर लिया है। गीता में तो भगवान् श्रीकृष्ण ने जीर्ण वस्त्र को छोड़ना जैसे एक सहज क्रिया है, उसी प्रकार शरीर को छोड़ना भी एक स्वाभाविक सहज घटना होने के कारण ही उसके बारे में चिन्तित न होने का उपदेश दिया हमारे देश के अनेक मुनियों और तपस्वियों के अपनी तपश्चर्या के सामर्थ्य से अनेक जीवों को प्राण-दान देने की महिमा बताने वाली कथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। एक आश्चर्य