Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ मृत्यु की दस्तक 5. अशनाया वै मृत्युः - बुभुक्षा मृत्यु है। - जैमिनीय ब्राह्मण 6. प्रजापतिर्वै मृत्युः - प्रजापति ही मृत्यु है। वही। (प्रजापति) 7. श्रमो वै मृत्युः / आदित्यो मृत्युः - श्रम मृत्यु है। आदित्य भी मृत्यु है। - शतपथ ब्राह्मण 8. अहोरात्रे मृत्युः - दिन और रात्रि मृत्यु है - जैमिनीय ब्राह्मण 9. अग्निवायुसूर्यचन्द्रमसा मृत्यवः - अग्नि वायु, सूर्य और चन्द्रमा; ये मृत्यु हैं। - जैमिनीय ब्राह्मण यहाँ जिसे-जिसे "मृत्यु' कहा गया है, वही-वही मृत्यु के हेतु हैं। कारण और कार्य में अभेद मानकर उनकी मृत्यु रूपता प्रतिपादित की गयी है। मनुष्य के शरीर में अग्नि रहती है। वैश्वानर अग्नि ही आहार-पाचन करता है। और उसी के कारण शरीर में ओज और उष्णता रहती है। यह अनुभव का विषय है कि उस अग्नि के शान्त हो जाने पर मृतक का शरीर ठण्डा हो जाता है अतः अग्नि को मृत्यु कहा गया है। दूसरा पक्ष यह भी है कि शरीर में अग्नि का अतिशयाधिक्य (शरीर के ताप का अत्यधिक बढ़ना) भी मृत्यु का कारण होता है। प्राण की मृत्युरूपता का संकेत पूर्व में किया जा चुका है। श्रम भी अग्नि रूप है। श्रम से शक्ति का क्षय और शरीर के ताप की वृद्धि होती है। अतः निरन्तर श्रम अथवा असह्य श्रम भी मृत्यु का कारण बनता है। अशना = भूख को मृत्यु कहा गया है। हम सभी जानते हैं कि लोक में भुखमरी आम बात है। इस संसार में प्रतिवर्ष लाखों जीव कुपोषण अथवा भूख से मरते हैं। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, अहोरात्र और संवत्सर को भी मृत्यु कहा गया है। ये या तो कालरूप हैं अथवा काल के कारकरूप। काल = समय की गणना हम किसी भी व्यक्ति या वस्तु की जीवितावर्धन अर्थात् आयु के लिए करते हैं। प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति की एक निश्चित आयु होती है। आज तो सजीव ही नहीं, निर्जीव (यथा भवन, सेतु, यन्त्रादि) पदार्थों की भी आयु मानी जाती है। कोई भी काल की दृष्टि से नहीं बचता। सृष्टि के इस नियम को मृत्यु के सन्दर्भ में देखा जाए तो नचिकेता का वचन स्मरण आता है - सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः / / 8 अर्थात् मरणधर्मा मनुष्य फसल (अन्न या अनाज) की तरह पकता (पककर झड़ता) है और अनाज की ही तरह पुनः पैदा होता है। 7. अहं वैश्वानरो भूता प्राणिनां देहमाश्रितः। प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् / / - श्रीमद्भगवद्गीता, 15,14 / भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - "मैं ही वैश्वानर नामक अग्नि होकर, प्राणियों के शरीर में स्थित होकर, प्राण और अपान से अच्छी तरह मिलकर चार प्रकार के अन्नों (आहार) खाद्य, पेय, लेह्य और चोष्य को पचाता हूँ।" 8. कठोपनिषद् 1,1,61