Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ 70 . मृत्यु की दस्तक “जीवेम शरदः शतम्” इत्यादि के द्वारा श्रुतियाँ भी इसी अर्थ का प्रतिपादन करती हैं। मृत्यु से उद्वेग की छाया "मृत्योर्माअमृतं गमय” इस कामना-वाक्य में भी परिलक्षित होती है। इस संसार के नाना क्लेश सहता हुआ भी मनुष्य मरना नहीं चाहता। यदि इस लोक में सबसे बड़ा कोई भय है तो वह है “मरणभय' / इस मरणभय से ऋण के लिए मनुष्य अपनी प्रिय से भी अधिक प्रिय भौतिक वस्तु का परित्याग करने के लिए तैयार रहता है। यहाँ तक कि वह अपनी पत्नी, सन्तानादि का त्याग कर सकता है, अपना अंग-भंग करा सकता है। निष्कर्षतः यह कहना असंगत न होगा कि केवल मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र की यह इच्छा और सर्वतोभावेन चेष्टा होती है कि वह किसी-न-किसी रूप में बना रहे, मृत्यु को प्राप्त न हो। ___ “अथ मृत्युः कस्मात्?” अर्थात् मृत्यु कैसे? इसका स्वरूप क्या है? इस प्रकार की जिज्ञासा स्वाभाविक है। निश्चय ही इस विषय में अतीत काल से ही अत्यन्त गहन विचार हुआ है और नाना दृष्टियों से इसका विश्लेषण भी हुआ है। सामान्य व्यवहार में जहाँ हम जीवन के लिए "प्राणधारण” शब्द का प्रयोग करते हैं वहीं मृत्यु के लिए ठीक इसके विपरीत "प्राणत्याग” का प्रयोग किया जाता है। इसका स्पष्ट आशय है कि जब तक नासिका द्वारा वायु का संचार होता है तब तक “जीवन" है और जब यह क्रिया समाप्त हो जाती है अर्थात् नासिका से प्राणवायु का गमनागमन सहजतया समाप्त हो जाता है तब उस अवस्था को "मृत्यु" कहा जाता है। इसी आधार पर प्राण की श्रेष्ठता बतायी गयी है। इस सम्बन्ध में छान्दोग्योपनिषद् का यह आख्यान द्रष्टव्य है - एक बार सभी इन्द्रियों के साथ प्राण प्रजापति के पास गया और उसने निवेदन किया - “भगवन् हम लोगों में कौन सबसे बड़ा है?" भगवान् प्रजापति ने स्पष्ट उत्तर दिया - “जिसके निकल जाने पर शरीर अत्यन्त हेय समझा जाए, वही सबसे बड़ा है। ते ह प्राणाः प्रजापतिं पितरमेत्योचुः, भगवन् को नः श्रेष्ठः इति। तान् होवाच यस्मिन् व उत्क्रान्ते शरीरं पापिष्ठतरमिव दृश्येत स वः श्रेष्ठः / / प्रजापति के इस उत्तर को श्रद्धेय न मानकर सबसे पहले वागिन्द्रिय ने शरीर का परित्याग किया। किन्तु इससे वक्तृत्वशक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ हानि न हुई। शेष इन्द्रियों ने यथावत् व्यापार किया। इसी प्रकार क्रमशः एक-एक करके सभी इन्द्रियों ने शरीर का परित्याग करके यह प्रत्यक्ष देखना चाहा कि देखें हमारे शरीर में न रहने से इस शरीर की हानि होती है अथवा नहीं? अर्थात् वह जीवित रहता है अथवा नहीं। परन्तु इन्द्रियों द्वारा शरीर का परित्याग कर देने पर भी उसमें प्राणवायु के अवस्थित रहते हुए वह जीवित रहा, मृत नहीं हुआ। इन्द्रियों की इस 3. छान्दोग्योपनिषद्, 5.1.71