Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ 90 . मृत्यु की दस्तक अग्रसर हुए अपितु आगम एवं तर्क का आश्रय लेकर उसकी स्थापना एवं सिद्धि में सभी परस्पर के विरोधों को मिटाकर एकजुट हो गए हैं और सांख्य ने यह स्थापना करने का प्रयास किया कि जो दृष्ट जगत् है उसमें किया जाने वाला प्रयास जिस प्रकार नश्वर है उसी प्रकार वेद-वाक्यों के आधार पर किया गया प्रयास तथा उससे प्राप्त होने वाला फल अविशुद्धिक्षय एवं अतिशयता आदि दोषों से ग्रस्त होने के कारण उपादेय नहीं है। इस प्रकार दार्शनिक चिन्तन में उस पद, स्थिति, अवस्था का निर्देश किया जाने लगा जो मृत्यु के प्रभाव से सदा के लिए विनिर्मुक्त है जिसे मोक्ष, मुक्ति, अपवर्ग, परमपद, निर्वाण, निःश्रेयस, आदि शब्दों के द्वारा अभिहित किया जाने लगा और उसकी प्राप्ति के उपायों पर वैचारिक दृष्टि से चिन्तन एवं व्यावहारिक दृष्टि से आचरण एवं अनुष्ठान का आरम्भ हुआ। यह पद आकर्षक एवं लुभावना तो है किन्तु श्रद्धा, विश्वास एवं शास्त्र-प्रमाण से अतिरिक्त इसको मानने के लिए कोई दृढ़ आधार नहीं है क्योंकि यह प्रत्यक्ष एवं तर्क की सीमा से परे माना जाता है। __ जिसकी मृत्यु होती है उसका तात्त्विक स्वरूप क्या है? इस स्वाभाविक प्रश्न के उत्तर के लिए हम भारतीय तत्त्वमीमांसा की दो धाराओं का उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें एक धारा नित्यतावादी है और दूसरी धारा अनित्यतावादी है। दोनों धाराओं में मृत्यु के अस्तित्व एवं महत्त्व को स्वीकार किया गया है। नित्यतावादी धारा में मृत्यु से सम्पृक्त आत्मा को नित्य अपरिवर्तनशील वृद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश आदि से रहित, अचल एवं सनातन माना जाता है। इस प्रकार के स्वरूप वाले आत्मा के साथ विनाशक शक्ति रूप मृत्यु की संगति स्थापित नहीं हो पाती और यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि जब आत्मा की मृत्यु नहीं होती तो उसका जन्म भी नहीं हो सकता तब इस जन्म-मृत्यु के भवचक्र में परिभ्रमण करने वाला कौन है? , दूसरी ओर अनित्यतावादी धारा में कोई भी वस्तु या तत्त्व स्थायी, नित्य, अपरिवर्तनशील नहीं है अतः जिसे आत्मा नाम दिया जाता है वह भी रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान, एवं सतत परिवर्तनशील, इन पंच स्कन्धों का संघात माना है। अतः यह भी प्रश्न उठता है कि जब प्रत्येक वस्तु तथा पंच स्कन्ध के प्रत्येक स्कन्ध सतत परिवर्तनशील हैं तो क्षण, क्षणमें होने वाले परिवर्तन से मृत्युसंज्ञक परिवर्तन में भेद किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है। उक्त दोनों धाराओं में जन्म और मृत्यु की व्याख्या अपनी तत्त्वमीमांसीय आधारों एवं दार्शनिक पूर्व मान्यताओं के सहयोग से की जाती है जिसकी संगति के लिए उनकी पूर्व मान्यताओं को स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। उक्त दोनों धाराओं में जन्म-मृत्यु के चक्र की व्याख्या के लिए कर्मवाद पूर्व मान्यता का रूप स्वीकृत है जिसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जो कुछ शुभ या अशुभ कर्म करता है उसका सुखात्मक एवं दुःखात्मक फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है तथा वह जो कुछ भी