Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ मृत्यु - आध्यात्मिक दृष्टिकोण 153 और मित्र बनकर, युद्ध और शान्ति, प्रेम और कलह के रस का आस्वादन करते हैं। फिर कल-परसों देह त्यागकर चले जायेंगे। यह हमारी अनन्त क्रीड़ा में केवल एक मुहूर्त मात्र, क्षण भर का खेल है और कुछ ही क्षणों का प्रेम है। हम प्रकृति के ईश्वर हैं। जीवन-मरण के कर्ता ईश्वर के अंश हैं। हम थे, हम हैं और हम रहेंगे। भूत, वर्तमान और भविष्य के अधिकारी हैं। तब मृत्यु का शोक कैसा? और क्यों? हम तो उस परमेश्वर के अमृत की संतान हैं। आनन्द की सन्तान / कौन मरता है और मारता है? गीता के अनुसार - य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् / उभौ तौ न विजातीतो नायं हन्ति न हन्यते।। जो इस आत्मा को मारने वाला मानता है, और जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। यथार्थ ज्ञानी ही जानता है कि आत्मा न तो मरती है और न ही कभी मारी जाती है, अर्थात् मृत्यु तो केवल देह की ही होती है। इस प्रकार अगर इस सत्य को हम समझ पाते, जान जाते तो न ही मृत्यु से डरते और न ही शोक करते। जिसे अपने मरने का भय होता है, शोक होता है, वह अपने आप के महत्त्व और तत्त्व को समझ नहीं सकता। मृत्यु हमारा स्पर्श तक नहीं कर सकती। मनुष्य केवल अपने शिवत्व को भूलकर दुःखी और शोकाकुल होता है। क्या मृत्यु-चिन्ता महामुक्ति का मार्ग है? युग-युग से असंख्यवार प्राणी जन्म-मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। जन्म-मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये मनुष्य को मृत्यु-चिन्ता को महासम्बल मानकर ग्रहण करना होगा। क्योंकि मृत्युचिन्ता ही मनुष्य को रिपु की उत्तेजना और इन्द्रियों की पीड़ा से रक्षा करती है। विषय-वासना को नष्ट करके मृत्यु-चिन्ता मनुष्य के मन में विवेक-वैराग्य जगाती है, भोगविलास की इच्छा को नष्टकर मानव-प्राण में मुक्ति की आकांक्षा जगाती है। जो व्यक्ति सदा मृत्यु-चिन्ता करता है वह कभी भी किसी प्रलोभन द्वारा प्रबुद्ध/प्रलुब्ध नहीं होता, किसी माया-मोह से आबद्ध नहीं होता। जो व्यक्ति हर पल प्रत्येक भावना, प्रत्येक चिन्ता में सोते-जागते मृत्यु की स्मृति को मन से लगाकर रख सकता है वह शीघ्र ही महामुक्ति पाने में समर्थ होता है। - असल में, हम सब अवस्तु में वस्तु बोध से, असत् में सत्य बोध से, व माया-मोह में, पिता-माता के स्नेह और सुश्रुषा में प्रलुब्ध और मुग्ध होकर अपना जीवन, जन्म व्यर्थ कर रहे हैं। हमारे शुभ-अशुभ कर्मों के फल हमारे माता-पिता या कुटुम्ब को भुगतना नहीं होगा, यह सिर्फ हमें ही भोगना पड़ेगा। अतः हम व्यर्थ ही माया-मोह और झूठे कर्त्तव्य-बोध से उनके प्रति आबद्ध होकर अपने जीवन के अमूल्य समय को नष्ट कर रहे हैं। यदि इसी क्षण हमारी मृत्यु होती है तब चिता पर दो मुट्ठी भस्म या राख के अलावा कुछ भी अवशेष नहीं रह