Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ अमरत्व पर विषरूपी मृत्यु का तांडव 161 है और उस अमृतपान की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है। इसी वास्तविक अमृतत्त्व की प्राप्ति मनुष्य मात्र का परम एवं चरम ध्येय होना चाहिए - इसीलिए शास्त्रों में इसे "निःश्रेयस्” अथवा परम कल्याण कहा गया है। इसी की प्राप्ति के लिए यह मनुष्य देह हमें मिली है। इसकी प्राप्ति मनुष्य-देह में ही सम्भव है, अन्य योनियों में नहीं। इसीलिए शास्त्रों ने मनुष्यदेह को देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताया है। यदि देवताओं का अमरत्व ही वास्तविक अमरत्व होता तो फिर देव योनि की अपेक्षा मनुष्य योनि को श्रेष्ठ क्यों बतलाया जाता, क्योंकि देवताओं को तो वह अमरत्व सहज ही जन्म से प्राप्त है। अब हमें यह देखना है कि वह अमृत कौन-सा है, जिसके पान से मनुष्य सदा के लिए अमर हो जाता है, देवताओं की कोटि को भी लांघ जाता है, जिसके पी लेने पर फिर उसे माता का स्तनपान नहीं करना पड़ता, गर्भवास की यन्त्रणा नहीं सहनी पड़ती, यम यातना से उसका सदा के लिए छुटकारा हो जाता है, और मृत्यु का द्वार उसके लिए सदा के लिए बन्द हो जाता है। कहना न होगा मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्ति ही वह वास्तविक अमरत्व है, जिसकी शास्त्रों में इतनी महिमा गायी गयी है। वेदों का तात्पर्य भी उसी की प्राप्ति में है - “वेदैश्च सर्वैरहमेव वैद्यः (वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं - भगवान ही हूँ)” चतुर्विध पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ - वास्तविक पुरुषार्थ यही है, मनुष्य का सारा प्रयत्न इसी के लिए होना चाहिए, इसी में उसके जन्म एवं जीवन की सार्थकता है। जो इसी जीवन में इस अमरत्व को पा लेता है, उसके माता-पिता धन्य हैं। ___ "कुलं पवित्र जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।" उसी का कुल पवित्र है, उसी की माता कृतार्थ है, पृथ्वी भी उसी के कारण पुण्यवती है। जो मनुष्य जन्म पाकर भी मनुष्य जीवन की इस अमूल्य निधि से वंचित रहता है, वह जो पशु से भी गया-गुजरा है, शास्त्रों ने कृतघ्न एवं “आत्महत्यारा” कहकर उसकी लांछना की है। गोस्वामी जी ने कहा है - जो न तरइ भव सागर नर समाज अस पाइ। सो कृतनिन्दक मन्दमति आत्माहन गति जाइ।। इस अमृतत्त्व की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में अनेक उपाय बताये गये हैं। वे सभी उपाय अमृतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होने के कारण अमृत ही हैं। जिस प्रकार आयुर्वेद में घी को आयुवर्धक होने के नाते आयु-रूप - जीवन-रूप ही बताया गया है (आयुर्वेघृतम), उसी प्रकार लक्षणा-वृत्ति से अमृत-पद की प्राप्ति के हेतुभूत सभी साधन अमृत ही कहे जाते हैं। इन विविध अमृतों में से एक भी अमृत का मनुष्य यदि पान कर ले तो वह वास्तव में अमर हो सकता है - इसमें किंचित मात्र भी शंका के लिए स्थान नहीं है। त्याग, समता, सत्य, आदि सभी सद्गुण अमृत हैं। त्याग की महिमा सभी शास्त्रों में गायी गयी है। श्रुतियों में त्याग को स्पष्ट शब्दों में अमृतत्त्व की प्राप्ति का कारण बताया गया है। कैवल्योपनिषद् के वचन हैं - न कर्मणा न.प्रजया धनेन त्यागेनै के अमृतत्त्वमानशुः / /