Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan

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Page 196
________________ 186 मृत्यु की दस्तक बौद्ध विचारधारा में निर्वाण जीवन-साधना की पूर्णाहुति है। निर्वाण को अन्तिम शुद्धि के रूप में वर्णित किया है। निर्वाण अहंकारमुक्त मानव की परम सुखमय अवस्था है। निर्वाण में तप द्वारा अहं क्षीण हो जाता है। जहाँ अहं है, वहाँ निर्वाण नहीं एवं जहाँ निर्वाण है.वहाँ अहं नहीं होता। मानव की ऊर्ध्वतम चेतना अर्थात् आध्यात्मिक अनुभूति की चरम अवस्था है निर्वाण / पालि त्रिपिटक में निर्वाण को अमृतपद कहा है। इस अवस्था में मृत्यु मर जाती है। बुद्ध ने कहा 'भिक्षुओं, ध्यान दो, मुझे अमृत मिला है। भगवान् बुद्ध ने निर्वाण को अन्तिम शुद्धि . कहा है। यह मरने पर नहीं होती। इस प्रकार शुद्ध जीव का पुनर्जन्म नहीं होता। आत्मा परमात्मा में उसी प्रकार विलीन हो जाती है जैसे नदी समुद्र में विलीन होने के उपरान्त अपना नाम एवं अस्तित्व समाप्त कर देती है। एक अवस्था मरने के उपरान्त एवं पुनर्जन्म के पहले की है। उस अवस्था को “पीर" प्रेत, आदि के नाम से जानते हैं। तीसरी अवस्था पुनर्जन्म की है। इस अवस्था में वह अपने पूर्व जन्म के सीमित पाप-पुण्य के फलस्वरूप सुख-दुःख लेकर आता है। मरने के उपरान्त जो प्राण निकला वह अपने साथ इस जन्म के पाप-पुण्य को सूक्ष्म रूप में ले गया। जैसे वायु अपने साथ सुगन्ध या दुर्गन्ध लेकर जाती है। यही पाप-पुण्य हमारे जन्म में भेद के कारण होते हैं। अगर अच्छे काम किये तो राजा के घर पैदा होंगे, सर्वांग सुन्दर पैदा होंगे एवं बुरे कर्म किये तो गरीब के घर अपंग एवं कुरूप पैदा होंगे। यह भी संभव है कि राजा के घर अपंग एवं कुरूप पैदा हों तथा रंक के घर सुन्दर एवं सपंग पैदा हों। बस यहीं पर “गहना कर्मणो गतिः” प्रमाणित होती है। कारण हम नहीं जानते कि इस जन्म में राजा के घर या रंक के घर पैदा होने में हमारा कौन सा पाप-पुण्य हेतु बना। इस प्रकार हमने यह बताने का प्रयत्न किया कि जन्म, जीवन एवं मृत्यु एक चक्र है। भगवान् ने गीता में कहा कि “हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं उन सबको जानता हूँ पर तुम नहीं जानते। यह जीवात्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती ही है। यह अजन्मा, शाश्वत्, नित्य, पुरातन है। शरीर के मर जाने पर भी यह नहीं मरती / यानि यह शरीर मरणधर्मा है। आत्मा अमर है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा कि “कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।” यानि हम जैसा कर्म करेंगे उसी प्रकार हमारी जीवन-यात्रा होगी।

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