Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan

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Page 162
________________ 152 मृत्यु की दस्तक बिना वैराग्य के सारी साधना खोखली है। इसलिए मन को वैरागी बनायें और निर्विषय निर्विकार और निश्चिन्त होकर जीवन को शांतिपूर्वक जीयें। मृत्यु का शोक क्यों? हम यह जानते हैं कि जीव बार-बार जन्म लेता है और मरता है, फिर भी उसके लिए शोक क्यों? व्याकुलता क्यों? और विलाप भी क्यों? सम्भवतः यह हमारी अज्ञानता या दुर्बलता ही है, जीव आशंकितवश बार-बार शरीर धारण करता है और शरीर धारण करते ही वह इन्द्रियों तथा संकल्पों से जुड़ जाता है। इन्हीं के द्वारा वह संसार को ग्रहण करता है और बंध जाता __इस सन्दर्भ में गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि - मृत्यु मनुष्य के हृदय में शोक उत्पन्न करता है। मनुष्य मात्र के लिये मृत्यु व विच्छेद बहुत भयंकर है, तथा जीवन बहुत मूल्यवान / शोक असाध्य है व कर्त्तव्य एक कठोर वस्तु होता है। मनुष्य अपने स्वार्थ की सिद्धि को मधुर जानकर हर्षित होता है, दुःख मानता है, हँसता है, रोता है लेकिन, इन सभी वृत्तियों को कोई ज्ञान से उत्पन्न वृत्तियाँ नहीं कह सकता। ज्ञानी व्यक्ति शोक नहीं करता, न मृत व्यक्ति के लिये और न ही जीवित के लिये क्योंकि वे जानते हैं कि मृत्यु व्यक्ति की वास्तविकता का अन्त नहीं है। मृत्यु की राख पर जीवन का कोमल पौधा उगता है और जीवन को जीकर मृत्यु की राख में विसर्जित हो जाता है और पुनः-पुनः यही चक्र चला करता है। अतएव हम जीवन में जो कुछ करते हैं वह जीवन के साथ समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि उसके कर्म-संस्कार आगे जन्मान्तर में चलते हैं और अपने कर्मों को फल के रूप में भोगना पड़ता है। देहिनोस्मिन्यथा देहे-कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्ति धीरस्तत्र न मुह्यति / / गीता के अनुसार जिस प्रकार जीव को इस देह में क्रम से कौमार, यौवन, वृद्धावस्था की प्राप्ति होती है, उसी भाँति मृत्यु होने पर अन्य देह की प्राप्ति होती है। जन्म तो केवल उस देह का होता है जो उसने धारण किया है। वह जीर्ण देह को त्यागकर नूतन देह को धारण करने से नवशक्ति युक्त हो जायेगी। इस विचार से तो प्रसन्न ही होना चाहिए, इसलिए इनमें से किसी भी अवस्था के लिये शोक का कोई कारण नहीं होना चाहिये। सिर्फ ज्ञानी पुरुष ही देह परिवर्तन से व्याकुल और शोक से आकुल नहीं होते। वे जानते हैं कि हमारा आत्मिक जीवन अनादि और अनन्त है जिसका न तो कोई आदि है और न ही अन्त, जो न तो जन्मता है और न ही मरता है, जिसका न तो विच्छेद होता है और न ही क्षीणता, न ही विकास और न विकार, जो अजर-अमर है, नित्य-सनातन है। हम चिरकाल से एक हैं। आत्मा सदा से अविनाशी है और सदा ही रहेगी। हम जीवन-मरण, सुख-दुःख इसी पृथ्वी पर भोगते आये हैं। प्रकृति के विशाल रंग-मंच पर हँसने-रोने का अभिनय करते हैं। शत्रु

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