Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता में मृत्यु की अवधारणा 75 शरीरात्मसंयोगो जन्म, शरीरात्मवियोगो मृत्युः / शरीर से आत्मा का संयोग ही जन्म है और शरीर से आत्मा का वियोग ही मृत्यु उस आत्मा के शरीर में रहते ही सारी इन्द्रियाँ अपने व्यापार में प्रवृत्त होती हैं और प्राणादि शरीर को धारण करते हैं। अतः जन्म और मृत्यु शरीर का होता है, आत्मा का नहीं। अतः मृत्यु को प्राप्त होने के कारण शरीर को मरणधर्मा कहा जाता है। जब मनुष्य सभी कामनाओं से रहित हो जाता है, जब उसके हृदय से अहंता-ममता रूप सभी अज्ञान ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, तब उसे उस आत्मा (ब्रह्म) का अनुभव होता है और वह मरण से मुक्ति पा जाता है। यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः / अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते। यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः / अथ मोऽमृतो भवत्येताव दह्यनुशासन्म / / 19 - ऐतरेयोपनिषद् में मृत्यु को अपान रूप कहा गया है। मृत्यु अपान वायु के रूप में नाभि में प्रवेश करता है।20 इसी उपनिषद् में अन्न को आयु कहा गया है और अपान वायु द्वारा ही शरीर में अन्न का ग्रहण होता है। ध्यातव्य है कि अशना (बुभुक्षा = भूख) को मृत्यु कहा गया है। अतः अन्न का आयुष्ट्व प्रमापित होता है। शरीर का यह स्थूल रूप अन्नमय कोश कहा जाता है। अन्न के सतत अभाव से यह शरीर क्रमशः क्षीण होता हुआ अन्ततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। तैत्तिरीयोपनिषद् में भी कहा गया है कि ये सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न हुए प्राणी अन्न से ही जीवित रहते हैं और अन्ततः अन्न में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। जीवन का कारण अन्न है। इसी प्रकार वहाँ प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को जीवन का कारण कहा गया है। अन्न को प्राणरूप बतलाते हुए कहा गया है कि प्राण में शरीर और शरीर में प्राण प्रतिष्ठित है। अतएव शरीर में अन्न और अन्न में शरीर प्रतिष्ठित है। इस प्रकार अन्नप्राण को शरीर का कारण माना गया है। आशय यह है कि अन्न अथवा प्राण का अभाव ही शरीर की मृत्यु है। 19. कठोपनिषद्, 2.3.14 / 20. मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशत्। - ऐतरेयोपनिषद्, 1.2.3 21. तदपानेनाजिघृक्षत्तदावयत् सैषोन्नस्य ग्रहो यद्वायुरन्नायुर्वा एष यद्वायुः। - वही, 1.3.10 22. अन्नाद्धयेव खाल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जाता जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति / . - तैत्तिरीयोपनिषद्, 3.2 23. तैत्तिरीयोपनिषद्, 3.3-4-5-61 * 24. - प्राणो वा अन्नम् / शरीरमन्नादम् / प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् / शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः / तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् / - वही, 3.7