Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ मृत्यु की दस्तक श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है कि ध्यानयोग की सिद्धि हो जाने पर जब योगी पंच महाभूतों पर अधिकार कर लेता तब योगाग्निमय शरीर को प्राप्त किये हुए उस योगी के शरीर में न तो कोई रोग होता है, न वृद्धता आती है और न ही उसकी मृत्यु होती है। श्रीमद्भगवद्गीता को सभी उपनिषदों का सारभूत कहा गया है। गीता, गाय-रूपी सभी उपनिषदों का दुहा गया दुग्धामृत है। अतः विद्वान् को मोह (भ्रम) नहीं होता। उपनिषदों में वर्णित विषय, गीता में अवश्य उपलब्ध होते हैं। उपनिषदों में वर्णित मृत्यु का स्वरूप भी गीता में अनेकत्र अनेकधा विशदतया वर्णित है। - श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्टतः कहा गया है कि इस शरीर की जैसे कौमार, यौवन और वृद्धावस्थायें हैं, वैसे ही मृत्यु भी है। अतः विद्वान् को मोह (भ्रम) नहीं होता। यहाँ स्पष्टतः कहा गया कि देही (आत्मा) के आश्रय से ही शरीर की ये अवस्थायें होती हैं। शरीर की मृत्यु वस्तुतः देही की देहान्तरप्राप्ति ही है। क्योंकि वह देही न तो पैदा होता है और न ही मरता है।27 . वह तो समय-समय पर पुराने शरीरों को छोड़कर. नये शरीर उसी तरह धारण करता है जैसे मनुष्य फटे-पुराने कपड़े छोड़कर नये कपड़े धारण करता है / 28 मृत्यु की अनिवार्यता बतलाते हुए कहा गया है कि जो शरीर पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरा है उसकी उत्पत्ति निश्चित है। अतः इन अपरिहार्य विषयों में शोक नहीं करना चाहिए। विषय-वासना का ही सदैव ध्यान करने से उसमें आसक्ति पैदा होती है, आसक्ति से काम, काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह और सम्मोह से स्मृतिनाश, स्मृतिनाश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से शरीरनाश हो जाता है।30 इस प्रकार मृत्यु के मूल में विषयवासनाओं में अतिशय आसक्ति कही गयी है और अन्ततः बुद्धि के नष्ट हो जाने पर शरीर के विनाश अर्थात् मृत्यु को निश्चय कहा गया है। 25. पृथ्व्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पंचात्मके योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य. रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् / / - श्वेताश्वतरोपनिषद्, 2.12 26. देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न. मुह्यति।। - श्रीमद्भगवद्गीता, 2.13 27. न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः / 28. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। - वही, 2.22 29. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुर्महसि।। 30. ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजतायते। संगात्संजायते कामःकामात्क्रोधोऽभजायते।। क्रोधाद्भवति सम्मोहःसम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः / स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। - वही, 2.62-631