Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ आराधना की जैन अवधारणा एवं सल्लेखना के तप करने के लिये कहा गया है - अनशन, अवमौदर्य, रसों का त्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशया। सल्लेखना के समय निम्न वस्तुओं के त्यागने की बात ग्रन्थकार ने कही है। दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और घृत का पूर, पूवे, पत्रशाक, सूप और लवण, आदि सबका अथवा एक-एक का त्याग रस परित्याग है, अर्थात् सल्लेखना काल में दूध आदि सबका या उनमें से यथायोग्य दो-तीन-चार का त्याग रस परित्याग है। शरीर सल्लेखना करने वाले को यह रस परित्याग नामक तप विशेष रूप से सेवन करना चाहिये। क्षपक सल्लेखना के लिये क्रम से आहार को कम करते हुए शरीर को कृश करता है और एक-एक दिन ग्रहण किये तप से, एक दिन अनशन, एक दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस प्रकार सल्लेखना को करता है। विविध प्रकार के रसरहित भोजन, अल्प भोजन, सूखा भोजन, आचम्ल भोजन, आदि से और नाना प्रकार के उग्र नियमों से दोनों प्रकार के संयमों को नष्ट न करता हुआ अपने बल के अनुसार देह को कृश करता है। इस प्रकार से सल्लेखना करने वाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं। यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभ मुहूर्त में सब संघ को बुलाकर योग्य शिष्य पर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्य को शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघ को शिक्षा देते हैं। इस प्रकार आचार्य संघ को शिक्षा देकर अपनी आराधना के लिये अपना संघ त्यागकर अन्य संघ में जाते हैं। समाधि का इच्छुक आचार्य निर्यापक की खोज में पाँच सौ-सात सौ योजन तक भी जाता है। ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं। इस काल में यदि इसका मरण भी होता है तो वह आराधक ही माना जाता है। योग्य निर्यापक को खोजते हुए जब वह संघ में जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। आचार्य परीक्षा के लिये क्षपक से तीन बार उसके दोषों को स्वीकार कराते हैं। यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरल हृदय मानते हैं किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं और उसकी शुद्धि नहीं करते। इस प्रकार श्रुत का पारगामी और प्रायश्चित्त के क्रम का ज्ञाता आचार्य क्षपक की विशुद्धि करता है। .. उपर्युक्त विवरण से यह भ्रान्ति हो सकती है कि यदि सल्लेखना ही सच्ची आराधना है, दूसरे शब्दों में मरते समय की आराधना सारभूत है तो मरने से पूर्व जीवन में चरित्र की आराधना क्यों करनी चाहिये? इसका उत्तर है, आराधना के लिये पूर्व में अभ्यास करना उचित है जो उसका पूर्वाभ्यासी होता है उसकी आराधना सुखपूर्वक होती है।