Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ जैन धर्म में जन्म और मृत्यु है कि जब हृदयगति रुक जाती है तो मृत्यु समझी जाती है। लेकिन जीव-विज्ञान के अनुसंधानों से यह सिद्ध हुआ है कि यह मृत्यु नहीं - “कार्डिएक ऐरेस्ट्स” है। विज्ञान आज मानसिक विद्युत तरंगों का स्थगित होना ही मृत्यु का लक्षण बताता है अर्थात् जब मस्तिष्क को संवेदनायें प्राप्त नहीं होती हैं तो व्यक्ति की मृत्यु समझी जाती है। लेकिन जीव-विज्ञान के इन अपूर्ण और अतिक्रमित होने वाले निष्कर्षों से अन्ततः केवल मृत्यु की सूचना ही दी जा सकती है उसकी सम्यक् व्याख्या नहीं हो सकती। निकट भविष्य में बिजली के झटके या मालिश से हृदयगति और स्थगित मानसिक विद्युत तंरगों को पुनः चालित किया जा सकता है। लेकिन यहाँ एक प्रश्न हमसे तत्क्षण उत्तर की प्रतीक्षा करता है कि क्या विज्ञान प्राणी को मृत्यु की विभीषिका से बचा लेगा? यहाँ विज्ञान मौन हो जाता है। अन्ततः हमें दार्शनिक सत्य की शरण में जाकर कहना होता है - “जातस्य ही ध्रुवो मृत्युः ध्रुव जन्म मृत्युश्च / मृत्यु के पश्चात् विज्ञान का पञ्चभौतिक शरीर तो यथावत् होता है लेकिन जीवित अवस्था की वे शक्तियाँ जिनसे शरीर संवेदनशील था, सोचने-विचारने, निर्णय करने की विलक्षण क्षमता थी, अपने-पराये का भान था, प्रेम और घृणा के भाव होते थे, सब कुछ एकाएक लुप्त हो जाता है। जिस तत्त्व की उपस्थिति के कारण यह सब कुछ होता है, उसे विज्ञान जीवित अवस्था में नहीं जान पाया तो मरने के पश्चात् क्या जानेगा? हमें उस अदृश्य तत्त्व की उपस्थिति का ही केवल अनुभव होता है, वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है जिसे बताया जा सके। उत्तराध्ययन में कहा गया है - “नो इन्दियगेज्झा अमुत्त भावा" / विज्ञान तो शरीर में “सेल्फ परपीच्युएटिव टेण्डेन्सी ऑफ प्रोटोप्लाज्मा” को भी सम्यक् रूपेण नहीं जान पाता है, क्योंकि यह एक चेतन क्रिया है। शरीर और औषधि विज्ञान में नोबेल पुरस्कार विजेता सर जेन्ट जोर्नोई ने कहा था “जीवन के रहस्यों की अपनी खोज में विज्ञान को केवल परमाणु और विद्युतकण ही हाथ लगे हैं जिसमें कोई जीवन नहीं है। इस राह में जीवन कहींन-कहीं अंगुलियों के बीच से बह गया है। वस्तुतः परमाणुओं के परस्पर व्यापार से चेतना के आविर्भाव को बताने में हमारी निष्ठा को बहुत बड़ी छलांग लगानी पड़ती है। डी.एन.ए. के सूत्रों से समस्त मानव प्रवृत्तियों की सम्यक् व्याख्या सम्भव नहीं है। जीवन और मृत्यु की सम्यक् व्याख्या के लिए भौतिक शरीर से स्वतन्त्र चेतन तत्त्व आत्मा को मानना आवश्यक है। स्वतन्त्र चेतन तत्त्व का शरीरस्थ होना ही जीवन का मूल तत्त्व है। इसी से भ्रूण पिण्ड में भी मन, बुद्धि, अहंकारत्व, शरीर के अङ्गों में समरस अन्तक्रिया देखी जाती है। स्वतन्त्र चेतन तत्त्व की मान्यता धर्म एवं दर्शन पराविज्ञान के क्षेत्र में आती है, रियल साइंस के क्षेत्र में नहीं। 1. गीता, 2/26. 2. द्रष्टव्य, आज, दैनिक वाराणसी, 19 अक्टूबर, पुनर्जन्म विषयक लेख।