Book Title: Mrutyu ki Dastak
Author(s): Baidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
Publisher: D K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
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________________ जैन धर्म में जन्म और मृत्यु पुनर्जन्म के नये स्थान - योनि का निर्धारण “कर्म" के आधार पर होता है। आधार का यहाँ मतलब पूर्वकृत कर्म (प्रारब्ध कर्म) से है - जो गुणात्मक दृष्टि से विविध प्रकार का है।" सुश्रुत का भी मत है - कर्मणा चेदितोयेन, तदाप्नोति पुनर्भव 12 मृत्यु के पश्चात् प्राणी को भावी गन्तव्य स्थान तक पहुँचने में कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक चार समय लगता है। ऋजु गति से जाने में एक समय और विग्रह गति से जाने में एक मोड़, दो मोड़, तीन मोड़ होने पर क्रमशः दो समय, तीन समय और चार समय लगता है। पुनर्भव का स्थान कितना भी दूर क्यों न हो, प्राणी के पहुंचने में अधिक-से-अधिक चार समय लगता है। यह समय एक क्षण के शतांश से भी कम है। इसे जैन धर्म में "अन्तराल गति” कहा जाता है। इस अन्तराल गति के समय आत्मा के साथ औदारिक शरीर का अभाव होता है, लेकिन आत्मा सूक्ष्म शरीर अर्थात् तेजस्, आहारक और कार्मण शरीर से युक्त होती है। गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर आत्मा सर्वप्रथम ओज-आहार का ग्रहण करती है जो उसके नये शरीर के निर्माण का आधार होता है। इस प्रकार आत्मा पुनः औदारिक शरीर या वैक्रय शरीर से युक्त होकर संसार के क्रियाकलापों में भाग लेती है। केवल मुच्यमान जीव तीनों शरीरों को छोड़कर ऋजुगति सिद्धिशिला तक पहुंच जाते हैं। बन्धन के कारण का अभाव होने से उनकी जन्म-मरण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। संक्षेप में जैन धर्म के अनुसार यही जन्म-मरण की प्रक्रिया है। - 11. तत्त्वार्थसूत्र, पृ. 65. 12. सुश्रुत संहिता 2/55/ /