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सण्णापरूवणा
चवीस-अणि ओगद्दारपरूवणा
५. देण अनुपदेण तत्थ इमाणि चदुवीसमणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - सण्णा सबंधी गोसव्वबंधो उकस्सबंधो अणुकस्सबंधो जहण्णबंधो अजहण्णबंधो सादिबंधो अणादिबंधो धुवबंधो अद्भुवबंध एवं याव अप्पा बहुगे त्ति । भुजगारबंधो पदणिक्खेवो वह्निबंधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहारो ति ।
१ सण्णापरूवणा
६. सणापरूवणदाए तत्थ सण्णा दुविहा- घादिसण्णा द्वाणसण्णा य। घादिसण्णा चदुष्णं घादीणं उकस्सअणुभागबंधो सव्वधादी । अणुकस्सअणुभागबंधो सव्वघादी वा देसवादी वा । जहण्णअणुभागबंधो देसघादी । अजहण्णओ अणुभागबंधो देसघादी वा सव्वघादी वा। सेसाणं चदुष्णं कम्माणं उक्क० अणु० जह० अज • अणुभागबंधो अघादी घादिपडिबद्धो ।
७. ट्ठासण्णा चदुष्णं घादीणं उक्कस्सअणुभाग० चदुट्ठाणियो । अणुक्कस्सअणु० चट्ठाणियो वा तिट्ठाणियो वा विट्ठाणियो वा एयट्ठाणियो वा । जह० अणुभा० एयट्ठायिो । अज० अणु एयट्ठाणियो वा विट्ठाणियो वा तिट्टाणियो वा चदुट्ठाणियो वा । चदुष्णं अघादीणं उक्क० चदुट्ठाणियो । अणुक्क० अणुभा० चदुट्ठाणियो वा तिट्ठाणियो वा विट्ठाणियो वा । जह० अणु विट्ठाणियो । अजह० अणु० विट्ठाणियो वा तिट्ठाणियो वा चट्ठाणियो वा ।
उपलब्ध होते हैं। शेष क्रम प्रथम स्पर्धकके समान जानना चाहिए। तथा यही क्रम अन्तिम स्पर्धक विवक्षित है। चौबीस अनुयोगद्वार प्ररूपणा
५. इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । यथा - संज्ञा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यवन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्धसे लेकर अल्पबहुत्व तक । भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीव समुदाहार |
१ संज्ञाप्ररूपणा
६. अब संज्ञाप्ररूपणाका प्रकरण है । उसमें भी संज्ञा दो प्रकारकी है- घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घानिसंज्ञा-चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति होता है और देशघाति होता है । जघन्य अनुभागवन्ध देशघाति होता है तथा अजघन्य अनुभागबन्ध देशघाति होता है और सर्वघाति होता है। तथा शेष चार कर्मोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध घाति से सम्बन्ध रखनेवाला श्रघाति होता है ।
७. स्थानसंज्ञा - चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानीय होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानीय होता है, त्रिस्थानीय होता है, द्विस्थानीय होता है और एकस्थानीय होता है । जघन्य अनुभागवन्ध एकस्थानीय होता है। तथा अजघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानीय होता है, द्विस्थानीय होता है, त्रिस्थानीय होता है और चतुःस्थानीय होता है। चार अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानीय होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानीय होता है, त्रिस्थानीय होता है और द्विस्थानीय होता है । जघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानीय होता है तथा अजधन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानीय होता है, त्रिस्थानीय होता है और चतुःस्थानीय होता है ।
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