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सिरिभगवंतभूदवलिभडारयपणीदो महाबंधो
तदियो अणुभागबंधाहियारो
[ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥
१. तो अणुभागबंधो दुविहो— मूलपगदिअणुभागबंधो चैव उत्तरपगदिअणुभागबंधो चेव ।
१ मूलपगदिअणुभागबंधो
२. एत्तो मूलपगदिअणुभागबंधो पुव्वं गमणिअं । तत्थ इमाणि दुवे अणियोगहाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - णिसेगपरूवणा फद्दयपरूवणा य ।
सब अरिहन्तोंको नमस्कार हो, सब सिद्धोंको नमस्कार हो, सब आचार्योंको नमस्कार हो, सब उपाध्यायोंको नमस्कार हो और लोकमें सब साधुओं को नमस्कार हो ।
१. आगे अनुभागबन्धका विचार करते हैं । वह दो प्रकारका है - मूलप्रकृति अनुभागबन्ध और उत्तरप्रकृति अनुभागवन्ध ।
मूलप्रकृति अनुभागबन्ध
२. आगे मूलप्रकृति अनुभागबन्धका सर्व प्रथम विचार करते हैं। उसके दो अनुयोगद्वार हैं। यथा-- निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा ।
ज्ञातव्य
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विशेषार्थ - आत्मा के साथ सम्बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोंमें राग, द्वेष और मोहके निमित्तसे जो फलदान शक्ति प्राप्त होती है, उसे अनुभाग कहते हैं । कर्मबन्ध के समय जिस कर्मकी जितनी फलदान शक्ति प्राप्त होती है उसका नाम अनुभागबन्ध है । वह ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति और मतिज्ञानावरण आदि उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे दो प्रकारकी है । इस अनुयोगद्वारमें इन्हीं दो प्रकारके अनुभागबन्धका विविध मुख्य और अवान्तर प्रकरणों द्वारा विस्तारके साथ विचार किया गया है । सर्व प्रथम मूलप्रकृति अनुभागबन्धका विचार किया गया है और तदनन्तर उत्तरप्रकृति अनुभागबन्धका । मूलप्रकृति अनुभागबन्धका विचार सर्व प्रथम दो अनुयोगोंके द्वारा करके अनन्तर उस पर से फलित होनेवाले अनेक अनुयोगोंके द्वारा विचार किया गया है । मुख्य अनुयोगद्वार ये हैं-- निषेकप्ररूपणा और स्पर्धप्ररूपणा । अनुभाग की मुख्यतासे निषेक दो प्रकार के होते हैं -- सर्वघाति और देशघाति,
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