Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 18
________________ १२ लोगहिआणं १३२ भवनिर्वेद ही भगवद् बहुमान कैसे ? १५० लोक = समस्त प्राणिलोक या पंचास्तिकाय १३३ सात प्रकार के भय ५१० सांव्यावहारिका व्यवहार राशि के जीव १३४ अभयदाता = विशिष्टस्वास्थ्यदाता १११ जीवों के प्रकार सम्यग्दर्शनादि धर्मस्वास्थ्य (धृति) पर निर्भर. १११ त्रस जीव के चार प्रकार होते हैं १३५ अभयदाता भगवान की पूर्वपूर्वसापेक्ष चार विशेषताएँ * स्थावर जीव के ५ भेद (१) गुणप्रकर्ष (२) अचिंत्यशक्ति (३) अभयवत्ता * वनस्पतिकाय जीव के दो प्रकार (४) परार्थकरण काल अस्तिकाय व स्वतंत्र द्रव्य नहीं १६ चक्नुदयाणं * अलोक लोक कैसे ? | १३६ द्रव्येन्द्रिय - भावेन्द्रियों के प्रकार - निवृत्ति, उपकरण, ११३ परमात्मा वस्तुमात्र के हित स्वरुप कैसे ? *लब्धि एवं उपयोग ११४ दो प्रकार का इष्ट, - पापनिरोध, स्वपरलाभ १३७ चक्षु =जीवादितत्त्व प्रतीति में हेतुभूत धर्मप्रशंसा, * इष्ट का व्यापक स्वरुप, नहीं कि मात्र तत्त्वप्रकाश ११५ विपरित दर्शन से अहित कैसे ? १३८ परिणति होने में काल कारण है, प्रतिबन्धक नहीं * आगम-विरुद्धाचरण ही मुख्य पापहेतु १३९ निमित्तकारण और उपादान कारण ११६ कर्तृभाव - कर्मभाव परस्पर सापेक्ष है १७ मग्गदयाणं ५१७ जड़ सम्बन्धी विपरीत दर्शनादि कर्ता में अहित १४० 'मार्ग' = चित्त की अ-कुटिल प्रवृत्ति प्रापक है १४१ त्रिविध शुद्धिः - (१) हेतुशुद्धि (२) स्वरुपशुद्धि ११८ कर्मत्व क्या ? कंकटुक भी कर्म (३) फलशुद्धि १३ लोग-पईवाणं * अन्तरङ्ग हेतु और बहिरङ्ग हेतु ११९ व्यवहार नय से प्रदीप सर्व के प्रति प्रदीप ___१४२ विशिष्ट गुणस्थान की प्राप्ति कब ? १२० निश्चय नय से अंध के प्रति प्रदीप नहीं * सानुबन्ध क्षयोपशम से कर्म निरनुबन्ध गुरुलघुभाव का विचार : निश्चय नय उच्च * सम्यग्दर्शन नष्ट होने पर भी पूर्ववत् संक्लेश नहीं १२२ अनंत प्रभाव भी स्वभावपरिवर्तन में अक्षम १४३ योगदर्शन में अभयादिवत् प्रवृत्ति-पराक्रम-जय१४ लोगपज्जोअगराणं - आनन्द - ऋतंभरा . १२३ प्रद्योत पद का अर्थः 'लोक' = गणधरजीव १४५ शुभाशय १२४ औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धिः प्रणिधान - प्रवृत्ति - विघ्नजय - सिद्धि - विनियोग गणघर कौन ? इच्छादि चार योग - इच्छा - प्रवृत्ति - स्थैर्य - सिद्धि १२, पूर्वधर में षट्स्थानहानिवृद्धि १८ सरणदयाणं १२६ प्रकाश में स्वभावभेद क्यों ? १४६ शरण का अर्थ 'विविदिषा' १२७ कार्य-कारणभाव का नियम सर्व-रक्षा न होते हुए भी प्रभु सर्वरक्षक १२८ प्रकाशयोग्य सात तत्त्व १४६ आश्वासन = तत्त्वजिज्ञासा * प्रकाशधर्म मात्र जीव में ही क्यों ? १४७ प्रज्ञा के आठ गुणः शुश्रूषा-श्रवण-ग्रहणादि १३० पाचों पदो में एक ही लोक होने से न्यूनता क्यों १४८ अन्यदर्शन सम्मति, अवधूताचार्य शिवानुग्रह : नहीं ? तत्त्वशुश्रूषादि *४ सामान्योपयोगसम्पत् का उपसंहार १४९ अतात्त्विक शुश्रूषादिः * सुप्तनृपाख्यान दृष्टान्त, १५ अभयदयाणं विषयतृष्णा को दूर करे वही सच्चा ज्ञान; १३१ अभय का कारण भगवद्-बहुमान पूजार्थ हो वह नहीं. १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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