Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 17
________________ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८५ ?? ९२ 03 बोधि का अर्थ, * बोधि में तारतम्य ६ पुरिसुत्तमाणं सर्वजीवों को योग्य माननेवालों बौद्धों का कथन जैन मतका प्रत्युत्तर : पुरुषोत्तम का अर्थ आत्मोन्नति के १० गुण: (१) परार्थव्यसनिता (२) स्वार्थगौणता, (३) उचित क्रिया (४) अदीनभाव (५) सफलारंभ (६) अदृढानुशय (७) कृतज्ञता स्वामिता (८) अनुपहतचित्त (९) देवगुरुबहुमान (१०) गम्भीराशय, ९७ साहजिक विशिष्टतामें युक्ति और दृष्टान्त, पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी - अनानुपूर्वी गुण- पर्यायों का संवलन विशिष्टता बादमें हो, पहले क्यों ? जात्यरत्न का दृष्टान्त प्रतिपाद्य में प्रतिपादन के योग्य स्वभाव की परिणति अभिधेय वस्तु में भी क्रम अक्रम है प्रत्येकबुद्धादिशास्त्र दृष्टान्त, ९८ स्वयं बुद्ध - बुद्धबोधि आदि में तफावत ९९ सभी का मोक्ष में भेद क्यों नहीं ? मृत्यु का दृष्टान्त, ९९ ७ पुरिस - सीहाणं वस्तु में असत्य शब्द योग्य परिणति क्यों नहीं ? स्याद्वाद शैली से स्वभावत: भी क्रम अक्रम है वस्तु में शब्दानुसार परिणति १०० तृतीय सम्पदा का उपसंहारः ९९ उपमा रहित स्तुतिवादी सांकृत्यमत सांकृत्यमत का खण्डन : भगवान में सिंहवत् शौर्य आदि गुणगण कैसे ? असली परमात्मपन पुरुषोत्तमादि चार कब होते हैं ? १० लोगुत्तमाणं १०१ समुदायवाची शब्दों की उसके भागों में प्रवृत्ति * लोक शब्द का समुदायार्थ पंचास्तिकाय, और प्रस्तुत अर्थ भव्यजीवराशि उपमा- प्रयोजन (१) असाधारण गुण- प्रदर्शन. (२) शुभभावप्रवर्तन उपमा से यथास्थित गम्भीरबांध और चित्त प्रसाद * सूत्र की विशेषताएँ ८. पुरिसवरपुण्डरीयाणं सुचारुशिष्यमत भिन्नजातीय उपमा नहीं, उपमेय में उपमा के स्वभावों की आपत्ति. इस मत के निरसन के दो सूत्र क्यों ? अर्हत् परमात्मा पुण्डरीक कैसे ? भगवान के ३४ अतिशय * वाणी के ३५ गुण परमात्मा का प्रभाव, सामर्थ्य, कृपा उपमा में विरोध क्यों नहीं ? * वस्तुमात्र एकानेकस्वभाव प्रदशवत्व प्रमेयत्व वाच्यत्वादि सत्त्व और अमूर्तत्वादि धर्मो में भेद * जीव में विशिष्ट सत्त्व क्यों नहि ? Jain Education International - ९५ - ९६ ९७ तथाभव्यत्व कारणों की भिन्नता पूर्वक ही कार्यों की भिन्नता सहकारी का भेद भी योग्यता भेद पर निर्भर ११ लोगनाहाणं यहां 'लोग' का अर्थ बीजाधानादियोग्य भव्य जीव भगवत्प्रसाद से शुभाशय की प्राप्ति योग-क्षेम से ही नाथता, ऐश्वर्यादि से नहीं योग-क्षेम के अर्थ * योग-क्षेम के पात्र भव्य जीवों के ही नाथ * सर्व भव्यों के नाथ क्यों नहीं ? वस्तु अनेक स्वभाव होने से विजातीय उपमा अविरुद्ध १०९ धर्मबीजाधान के बाद कब मोक्ष ? * विरोध कहां होता है ? ६. पुरिस - वरगन्धहत्थीणं गुणों के क्रम से ही कथन युक्त है * अक्रमवत् असत् इस मत का पूर्वपक्ष १०४ १०५ १०२ भव्यत्व, सजातीय में ही उत्कर्ष १०३ प्राप्ति और परिणमन में अंतर * वैशेषिकादि दर्शन-मत अयुक्त * योग्यता और अनादि पारिणामिक भाव परिणाम * १०६ मत का खण्डन परमात्मा श्रेष्ठ गन्धहस्ती समान कैसे ? अर्हत् प्रभु के ४ मुख्य अतिशय, ज्ञान-वचन-पूजा-अपायापगम अतिशय शब्द में ३ क्रमः १०७ १०८ - १६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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