Book Title: Kavyanushasana Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Rasiklal C Parikh
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 502
________________ पृथुकार्तस्वरपात्रं (अ.) ३२३, २३८. प्रसाधितस्याथ (अ.) ३८२, २६४. पृथुशास्त्रकन्या (वि.) २२, ११. [वे. सं. अं. ५. *लो. २५] चित्रभारत ] प्रसीदत्यालोके (अ.) ६८८, ४१२. पृथ्वी स्थिरीभव (वि.) ३४४, २१८. | [धनिकस्य, दशरूपकावलोक. प्र. २. सू.५] पष्टेषु शङ्खशकलच्छविषु (वि.) ४३७,२८५ | प्रस्निग्धाः क्वचिदिगुदी (अ.) ८७, ८५. पेशलमपि (अ.) ५८८, ३७४. [अ. शा. अं. १. श्लो. १३ ] पोढमहिलाण जं. (अ.) ६५५, ३९५. प्रागप्राप्त (अ.) २४५, २१३. पौरस्त्यस्तोयदों: (वि.) २५७, १८८. | [म. च. अं. २ श्लो. ३३ ] [सू. श. 'लो. ५५ ] | प्राज्यप्रभावः (अ.) ४८५, ३२८. पौलस्त्यः स्वयमेव (वि.) ३७९, २५३. [ति. म. लो. २.] [बा. रा. अं. २. लो. २.] | प्राणाः परित्यजत (वि.) ६०६. ४५४. प्रणमामि सुरारिघ्नं (वि.) ४६५. ३०४. [र. अं. ४. लो. ३ ] प्रणयकुपितां (अ.) १०३, ११२. प्राणायामैर्दहेद् दोषान् (वि.)५०२,३१७. [ वाक्पतिराजमुञ्ज ] / [म. स्मृ. अ. ६. श्लो. ७२ ] प्रतिगृहमुपलानाम् (वि.) ३७, १५. प्राणेश्वरपरिष्वंग (अ.) ३९२, २६६. प्रतिग्रहीतुं प्रणयिप्रियत्वात् (अ.) ६४७, प्राप्तश्रीरेष (अ.) २९, ६०. [कु. सं. स. १. *लो. ६६ ] प्राप्तावेकरथारूढौ (वि.) ३९३, २५६. प्रतीच्छत्याशोकी (वि.) ४२५, २८१. [शि. व. स. ३ *लो. १२] प्रत्यग्रमज्जन (अ.) २८३, २२५. प्राप्ताः श्रियः (अ.) ४००, २६७. [र. अं. १. *लो. २०] [भ. वै. श. 'लो. ६७] प्रदक्षिणक्रियातीतः (वि.) ३७२, २५०. प्रायशः पुष्पमालेव (अ.) ३९३, २६६. प्रभावतो नामन (अ.) ४५३, ३०१ . प्रावृष्यम्भोभृताम्भोद (वि.) २५६, १८८. प्रयत्नपरिबोधितः (अ.) ४२०, २७३. प्रियङ्गश्यामम् (वि.) ६८, २२. . [वे. सं. अं. ३ 'लो. ३४ ] प्रियेण संग्रथ्य (अ.) २३७, २१०. प्रवणः प्रणवो (अ.) ४५०, ३००. [कि. स. ८. 'लो. ३७] प्रवर्तते कोकिल (वि.) २२९, १८२. सामनिटान (वि.) ११० २७८. प्रवादिमतभेदे (वि.) ५०७, ३१८. [दे. श. लो. ८३ ] प्रेयान्सोऽयं ४४४, २८७. प्रसरन्ति कीर्तयस्ते (वि.) ८१, २५. प्रोन्मादयन्ती (वि.) २५८, १८८. [ १६२९ सुभाषितावली चन्द्रकस्य ] | प्रौढच्छेदानुरूपो (अ.) ४२९, २९३. प्रसादे वर्तस्व (अ.) १८६, १६१. [छ. रा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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