Book Title: Kavyanushasana Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Rasiklal C Parikh
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 563
________________ पर्यावन्ध (वि.) २९४. | पारवश्यज (अभिलाषविप्रलम्म) (अ.) पर्याय (अ.) ४६६ (लक्षण). ११२. पर्यायोक्त (अ.) ३६७ (लक्षण), ४००; | पारिपार्श्वक (वि.) ४५०. (वि.) ३३९. पार्श्वग्रहण (अ) ११४. पर्वत (वि.) १८२, १८३. पाणिग्राह (अ.) २९९. पल्लव (जनपद) (वि.) १८२. पाल (पर्वत) (वि.) १८३. पश्चात्करण (वि.) ९५. पाश्चात्य (जन) (वि.) १८६. पश्चादेश (वि.) १८३. पाश्चात्य-वायु (वि.) १८८, १९१. पश्चिमा (दिश्) (वि.) १८४. | पित्र्य-मासमान (वि.) १८७. पाञ्चजन्योक्ति (अ.) ८१; (वि.) ८१. पिशाच (अ.) ३३०. पाञ्चाली (रीति) (अ.) २९२. पीडन (अ.) ११६. पाटन (अ.) ११६. पीलु (वि.) १८३. पाठ (वि.) ३३५. पुण्ड्र (वि.) १८२. पुनरुक्त (अ.) २६१, २६४, २६५. पाठधर्म (अ.) ३३३; (घि) ३३६. पाठनियम (वि.) २८७. पुनरुक्ताभास (अ.) ३३८, ३३९ (लक्षण), ४०१. पाठ्य (अ.) ४३२ (भेद); (वि.) ३३५, ३३६, ४४८, ४४९. पुनःपुनर्दीप्ति (अ.) १७०. | पुराण (वि.) ८. पाण्डवादिकथा (वि.) १७८. पुरुष (अ.) ४३९ पाण्डु (वि.) १८६. पुरुषभेद (अ.) २२५, २२६. पाण्डय (वि.) १८२. पुरुषार्थ (अ.) ३०७, ४६४; (वि.) पातालीया-प्रकृति (अ) १७४; (वि.) ___ ४४७. १७५. पुरुषार्थनिष्ठा (संविद्) (वि.) १०१. पात्रप्रयोगवैशारद्य (वि.) २७७. पुरुषार्थोपयोगिनी (चित्तवृत्ति) (अ.) पादगूढ (अ.) ३२३. १२५. पादज (यमक) (अ.) ३००. पुरूरुवस् (वि.) ७, १२९. पादस्पन्द (अ) ११८. पुरोहित (अ.) ४३५. पादोपजीवन (वि.) १६. पुष्पिताग्रा (वि.) ४५०. पान (अ.) १०९. पुस्त (वि.) ४३९. पानकरसास्वाद (वि.) १०३. पूर्णोपमा (अ.) ३४१ (लक्षण). पारवश्य (अभिलाष-विप्रलम्भ) (अ.) पूर्वदेश (वि.) १८२. १११. पूर्व-पश्चिम (वि.) १८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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