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बाबू श्री बहादुरसिंहजी- स्मरणांजलि ।
जैन धर्मके विशुद्ध तत्वोंके प्रचार और सर्वोपयोगी जैन साहित्यके प्रकाशनके लिये भी उनकी खास रुचि थी और पंडितप्रवर सुखलालजीके परिचयके बाद इस कार्यके लिये कुछ विशेष सक्रिय प्रयत्न करने की उनकी उत्कण्ठा जाग उठी थी। इस उत्कण्ठा को मूर्तरूप देनेके लिये वे कलकत्तामें २-४ लाख रुपये खर्च करके किसी साहित्यिक या शैक्षणिक केन्द्रको स्थापित करनेकी योजनाका विचार कर ही रहे थे जितनेमें एकाएक सन् १९२७ (वि. सं. १९८४)में उनका स्वर्गवास हो गया।
बाबू डालचंदजी सिंघी, अपने समयके बंगाल निवासी जैन-समाजमें एक अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यापारी, दीर्घदर्शी उद्योगपति, बडे जमींदार, उदारचेता सद्गृहस्थ और साधुचरित सत्पुरुष थे। वे अपनी यह सर्व सम्पत्ति और गुणवत्ताका समग्र वारसा अपने सुयोग्य पुत्र बाबू बहादुर सिंहजीके सुपूर्द कर गये, जिन्होंने अपने इन पुण्यश्लोक पिताकी स्थूल सम्पत्ति और सूक्ष्म सत्कीर्ति - दोनोंको बहुत ही सुंदर प्रकारसे बढ़ा कर पिताकी अपेक्षा भी सवाई श्रेष्ठता प्राप्त करनेकी विशिष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त की थी।
बाबू श्री बाहादुर सिंहजीमें अपने पिताकी व्यापारिक कुशलता, व्यावहारिक निपुणता और सांस्कारिक सनिष्ठा तो संपूर्ण अंशमें वारसेके रूपमें उतरी ही थी; परन्तु उसके अतिरिक्त उनमें बौद्धिक विशदता, कलात्मक रसिकता और विविधविषयग्राहिणी प्राञ्जल प्रतिभाका भी उच्च प्रकारका सभिवेश हुभा था और इसलिये वे एक असाधारण व्यक्तित्व रखनेवाले महानुभावोंकी पंक्तिमें स्थान प्राप्त करने की योग्यता हासिल कर सके थे। __ वे अपने पिताके एकमात्र पुत्र थे, अतएव उन पर, अपने पिताके विशाल कारभारमें, बचपनसे ही
लक्ष्य देनेका कर्तव्य आ पड़ा था। फलस्वरूप वे हाइस्कुलका अभ्यास पूरा करनेके सिवाय कॉलेजमें जा कर अधिक अभ्यास करनेका अवसर प्राप्त नहीं कर सके थे । फिर भी उनकी ज्ञानरुचि बहुत ही तीन थी, अतएव उन्होंने स्वयमेव विविध प्रकारके साहित्यके वाचनका अभ्यास खूब ही बढ़ाया और इसलिये वे अंग्रेजीके सिवाय, बंगाली, हिंदी, गुजराती भाषाएँ भी बहुत अच्छी तरह जानते थे और इन भाषाओंमें लिखित विविध पुस्तकोंके पठनमें सतत निमग्न रहते थे।
बचपनसे ही उन्हें प्राचीन वस्तुओंके संग्रहका भारी शौक लग गया था और इसलिये वे प्राचीन सिक्कों, चित्रों, मूर्तियों और वैसी दूसरी दूसरी मूल्यवान् चीजोंका संग्रह करनेके अत्यन्त रसिक हो गये थे। इसके साथ उनका जवाहिरातकी ओर भी खूब शौक बढ गयाथा अतः वे इस विषयमें भी खूब निष्णात बन गये थे । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने पास सिक्कों, चित्रों, हस्तलिखित बहुमूल्य पुस्तकों आदिका जो अमूल्य संग्रह एकत्रित किया वह आज हिंदुस्तानके इने गिने हुए नामी संग्रहोंमें, एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करे ऐसा है। उनके प्राचीन सिक्कों का संग्रह तो इतना अधिक विशिष्ट प्रकारका है कि उसका आज सारी दुनियामें तीसरा या चौथा स्थान आता है। वे इस विषयमें, इतने निपुण हो गये थे कि बड़े बड़े म्यूजियमोंके क्यूरेटर भी बार बार उनसे सलाह और अभिप्राय प्राप्त करनेके लिये उनके पास आते रहते थे।
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वे अपने ऐसे उच्च सांस्कृतिक शोकके कारण देश-विदेशकी वैसी सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ करनेवाली अनेकों संस्थाओंके सदस्य आदि बने थे । उदाहरणस्वरूप-रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, अमेरिकन ज्योग्रॉफिकल सोसायटी न्यूयॉर्क, बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता, न्यूमेस्मेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया-इत्यादि अनेक प्रसिद्ध संस्थाओंके वे उत्साही सभागद थे।
साहित्य और शिक्षण विषयक प्रवृत्ति करनेवाली जैन तथा जैनेतर अनेकों संस्थाओं को उन्होंने मुक्तमनसे दान दे करके, इन विषयोंके प्रसारमें अपनी उत्कट अभिरुचिका उत्तम परिचय दिया था। उन्होंने इस प्रकार कितनी संस्थाओंको आर्थिक सहायता दी थी, उसकी सम्पूर्ण सूचितो नहीं मिल सकी है। ऐसे कार्यो में वे अपने पिताकी ही तरह, प्रायः मौन रहते थे और इसके लिये अपनी प्रसिद्धि प्रास करने की आकांक्षा नहीं रखते थे। उनके साथ किसी किसी वक्त प्रसंगोचित वार्तालाप करते समय, इस सम्बन्धी जो थोड़ी बहत घटनाएँ ज्ञात हो सकीं उसके आधार परसे, उनके पाससे आर्थिक सहायता प्राप्त करनेवाली कुछ संस्थाओंके नाम आदि इस प्रकार जान सका हूँ।
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