Book Title: Kasaypahudam Part 01 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Digambar SanghPage 17
________________ अन्तिम रूप देने में तीनोंका सम्मिलित प्रयत्न कार्यकारी है। प्रत्येकके कार्यको स्थूलरूपसे यों कहा जा सकता है। प्रारम्भमें मूलका यथासम्भव संशोधन तीनोंने मिलकर एक साथ किया है। उसमें जो कमी रह गई उसकी पूर्ति हिन्दी अनुवादके समय परस्परके विचारविनिमयसे होती गई । हिन्दी अनुवाद पं० फूलचन्द्रजीने किया है । तथा इसमें भाषा आदिकी दृष्टि से संशोधनका कार्य प्रथमतः पं० कैलाशचन्द्रजीने और तदनन्तर कुछ विशिष्ट स्थलोंका पं० महेन्द्रकुमारजोने किया है। टिप्पणोंका कार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने किया है और इसमें थोड़ी बहुत सहायता पं० फूलचन्द्रजी और पं० कैलाशचन्द्रजीसे ली गई है। परिशिष्ट व विषयसूची आदि पं० फूलचन्द्रजीने बनाये है । भूमिकाके मुख्य तीन भाग हैं ग्रन्थ, ग्रन्थकार और विषयपरिचय । इनमेंसे आदिके दो स्तम्भ पं० कैलाशचन्द्रजीने लिखे हैं और अन्तिम स्तम्भ पं० महेन्द्र कुमारजीने लिखा है। यहाँ हम लोग इस बातको फिर दुहरा देना चाहते हैं कि इस प्रकार यद्यपि कार्यविभाग है फिर भी क्या मूलका संशोधन, क्या अनुवाद और क्या प्रस्तावना आदि इन सबको अन्तिमरूप सबने मिल कर दिया है, इसलिये अभिमानपूर्वक यह कोई नहीं कह सकता कि यह कार्य केवल मेरा ही है। ग्रन्थ सम्पादनके प्रत्येक हिस्से में हम तीनोंका अनुभव और अध्यवसाय काम कर रहा है, अतः यह तीनोंके सम्मिलित प्रयत्नका सुफल है । आभार-ग्रन्थ सम्पादनका कार्य प्रारम्भ होने पर उसमें हमें श्रीमान् ज्ञाननयन पं० सुखलालजी संघवी अध्यापक जैनदर्शन हिन्दूविश्वविद्यालय काशीसे बड़ी सहायता मिली है। मूल पाठके कई ऐसे संशोधन उनके सुचाये हुए हैं जो हम लोगोंकी दृष्टिके ओझल थे। प्रारम्भका कुछ भाग तो उन्हें बराबर दिखाया गया है और आगे जहाँ आवश्यकता समझी वहाँ उनसे सहायता ली गई है। प्रेसकापी प्रेसमें देनेके पहले श्रीमान् पं० राजेन्द्रकुमारजी प्रधानमन्त्री संघ यहाँ पधारे थे, इस लिये विचारार्थ उन्हें भी प्रारम्भका भाग दिखाया गया था। हमें उनसे अनेक संशोधन प्राप्त हुए थे। प्रेससे जब प्रारम्भके फार्म पेजिंग होकर प्राप्त हुए थे तब यहाँ श्रीमान मुनि जिनविजयजी भी पधारे हुए थे। इसलिये पाठसंशोधन और व्यवस्था आदिमें उनके अनुभवका भी उपयोग हुआ है। प्राकृतव्याकरणके नियमोंके निर्णय करनेमें कभी कभी श्रीमान् पं० दलसुखजी मालवणियासे भी विचार विमर्श किया है। प्रस्तावनाके लिये उपयोगी पड़नेवाले त्रिलोक प्रज्ञप्तिके कुछ पाठ श्रीमान् पं० दरवारीलालजी न्यायाचार्यने भेजकर सहायता की। तथा पं० अमृतलाल जी शास्त्री स्नातक स्याद्वाद महाविद्यालयसे भी कई प्रवृत्तियोंमें सहायता मिलती रही। इस प्रकार ऊपर निर्दिष्ट किये हुए जिन जिन महानुभावोंसे हम लोगोंको जिस जिस प्रकारकी सहायता मिली उसके लिये हम लोग उन सबके अन्तःकरणसे आभारी हैं। क्योंकि इनकी सत्कृपा और सहायतासे ही प्रस्तुत संस्करण वर्तमान योग्यतासे सम्पादित हो सका है। आशा है पाठक प्रस्तुत संस्करणके वर्तमानरूपसे प्रसन्न होंगे। आगेके भागोंके लिये भी हम लोगोंको इतना बल प्राप्त रहे इस कामनाके साथ हम अपने वक्तव्य को समाप्त करते हैं और इस अद्वितीय ग्रन्थराजको पाठकोंके हाथमें सौंपते हैं। जयधवला कार्यालय, भदैनी बनारस कार्तिको पूर्णिमा वीरनि० २४७० सम्पादकत्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 572