Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( २१ ) रूप परिणत होते हैं, उनका कर्त्ता स्वयं पुद्गल है, जीव उनका कर्ता नहीं हो सकता है, जीव तो अपने भावों का कर्ता है । इसी बात को समयप्राभुत गाथ। ८६.८८ में स्पष्ट किया है, जिसका सारांश है
जीव तो अपने रागद्वेषादि रूप भावों को करता है किन्तु उन भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल कर्म रूप परिणत हो जाते हैं तथा कर्म रूप परिणत हुए पुद्गल द्रव्य जब अपना फल देते हैं तो उनके निमित्त को पाकर जीव भी रागादि रूप परिणमन करता है । यद्यपि जीव और पौद्गलिक कर्म दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तो भी न तो जीव पुद्गल कर्मों के गुणों का कर्त्ता है और न पुद्गल कर्म जीव के गुणों के कर्ता है, किन्तु परस्पर में दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं । अतः आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है, पुद्गलकर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है।
उक्त कथन पर यह शंका हो सकती है कि जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन के पुरुष की तरह आत्मा को सर्वथा अकर्ता और प्रकृति की तरह पुद्गल को ही कर्ता मानता है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। सांख्यदर्शन का पुरुष तो सर्वथा अकर्ता है किन्तु जैनदर्शन में आत्मा को सर्वथा अकर्ता नहीं माना है । वह अपने स्वाभाविक भाव-ज्ञान, दर्शन, सुख आदि तथा वैभाविक भाव-रागद्वेष, मोह आदि का कर्ता है किन्तु उनके निमित्त से जो पुद्गलों में कर्म रूप परिणमन होता है, उसका वह कर्ता नहीं है। उक्त कथन का सारांश यह है कि वास्तव में उपादान-कारण को ही किसी वस्तु का कर्त्ता कहा जा सकता है तथा निमित्तकारण में जो कर्ता का व्यवहार किया जाता है, वह व्यावहारिक लौकिक दृष्टि से किया जाता है। कर्तृत्व के बारे में जो बात कही गई है, वही भोक्तृत्व के बारे में भी जाननी चाहिए । जो जिसका कर्ता होता है वही उसका भोक्ता हो सकता है और जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org