Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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है-१-सांपरायिक, एवं २-ईपिथिक बन्ध । सकषायी का बन्ध सांपरायिक होता है । यह अनन्त संसार का कारण है और अकषायी. का बन्ध ईर्यापथिक होता है, जिसमें प्रथम समय में कर्म परमाणु आत्मा के साथ बंधते हैं और दूसरे समय में निर्जीर्ण हो जाते हैं। यह बन्ध आत्मा पर अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखलाता है। __ वस्तु के निरूपण की जनदर्शन में दो दृष्टियाँ हैं जिन्हें निश्चयनय और व्यवहारनय कहते हैं । जो परनिमित्त के बिना वस्तुस्वरूप का कथन करता है उसे निश्चयनय कहते हैं और परनिमित्त की अपेक्षा से जो वस्तु का कथन करता है, वह व्यवहारनय है । जैनदर्शन में जीव के कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का विचार भी इन दोनों नयों से किया गया है।
कर्म का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है और यह भी संकेत किया गया है कि कर्म का जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है। इन कर्मों के कर्तृत्व और भोक्तृत्व के बारे में जब हम निश्चय दृष्टि से विचार करते हैं तो जीव न तो द्रव्य कमों का कर्त्ता ही प्रमाणित होता है और न उनके फल का भोक्ता ही। क्योंकि द्रव्यकर्म पौदालिक हैं, पुद्गल द्रव्य के विकार हैं, इसीलिए पर हैं । उनका कर्त्ता चेतन जीव नहीं हो सकता है । चेतन का कर्म चैतन्य रूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतन रूप । यदि चेतन का कर्म भी अचेतन रूप होने लगे तो चेतन और अचेतन का भेद नष्ट होकर संकर दोष उपस्थित हो जायेगा। इसका फलितार्थ यह हुआ कि प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता है, परभाव का कर्ता नहीं है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है किन्तु अग्नि का सम्बन्ध होने से उष्ण हो जाता है। किन्तु इस उष्णता का कर्ता जल को नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उष्णता तो अग्नि का धर्म है और वह जल में अग्नि के सम्बन्ध से आई है, अतः आरोपित है। अग्नि का सम्बन्ध अलग होते ही चली जाती है। इसी प्रकार जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर जो पुद्गलद्रव्य कर्म
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