Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 17
________________ (१३) भगवन महावीर का यह कथन यथार्थ हैकडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। एक प्रकार से यही कर्म विज्ञान का आधार है। जिस जीव के जिस प्रकार के मनोभाव, अध्यवसाय और प्रवृत्ति रही, उसने वैसे ही कर्म बाँध लिये, और जैसे कर्म बाँधे उसे वैसा ही शरीर, इन्द्रिय, लाभ-हानि, सुख-दुख आदि की प्राप्ति होती है। . कर्म विज्ञान : पाँचवा भाग मैंने कर्म विज्ञान के पिछले चार भागों में कर्म के स्वरूप, कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध, शुभ-अशुभ कर्म, कर्मों का आस्रव-आगमन (Influx), संवर (Check up of Karmas) आदि तत्वों पर बहुत ही विस्तार पूर्वक विवेचन/ विश्लेषण किया है। सामाजिक समस्याओं पर भी विचार किया है। चतुर्थ भाग में बंन्ध का विवेचन किया है कि कर्म किस प्रकार बँधते हैं, बन्ध के कारण क्या और कौन-कौन से हैं। कर्मों की प्रकृति का वर्णन करके उनके फलभोग के विषय में चर्चा की है। यह बताने का भी प्रयास किया है कि एक ही कर्म क्यों और किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के फल-परिणाम उत्पन्न करता है। तीव्र और मन्द भावों-अध्यवसायों का कर्मबन्ध पर क्या प्रभाव पड़ता है। कर्म कितने समय तक के लिए (Duration) बंधता है। प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति कितने समय की है। कर्म कितने समय तक उदय में नहीं आता-अपना फल नहीं देता, उसका अबाधा काल कितना है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया पर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया। - प्रस्तुत पाँचवें भाग में कर्मबन्ध की विशेष दशाओं पर विवेचन/विश्लेषण किया है कि कर्मबन्ध की किस प्रकार की विविधता और विशेषताएँ क्या हैं? कौन-कौन सी प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका और अध्रुवसत्ताका तथा परावर्तमाना और अपरावर्तमाना हैं। विपाक (फलदान शक्ति) पर आधारित कौन-सी चार प्रकृतियाँ हैं? कर्म बन्ध की परिवर्तनीय अवस्थाएँ, व्यवस्था सूचक स्थानत्रय आदि कर्म बन्ध की विभिन्नताओं का विवेचन इस भाग में किया गया है। वस्तुतः इस भाग में मार्गणा-स्थानों और गणस्थानों तथा जीवसमासों का सर्वांगपूर्ण विश्लेषण है। मार्गणा-स्थान, गुणस्थान आदि जीव के मनोभावों के उतारचढ़ाव का थर्मामीटर है। जिसके आधार पर हम उसकी वृत्तियों, प्रवृत्ति और परिपाटियों का विवेचन/विश्लेषण कर सकते हैं। जैन मनोविज्ञान की यह अनूठी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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