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८३६ जयोदय-महाकाव्यम्
[२२ विस्फूतिभून्नवर ! किन्नववदुरेष
प्रागुत्थितो वियति शोणितकोपदेशः । श्रीसमनोऽनुभवतो मधुमेहपूर्ति
भो राजरुग्विजयिनस्तव भाति मूर्तिः ॥२२॥ विस्फूर्तीत्यादि-भो नृवर ! जयकुमार ! वियति गगने प्रागुत्थितः पूर्वविशि सजातः शोणित एव शोणितकोऽरुणवर्णस्तस्योपदेशः समस्ति । अत एवंष दुर्वृक्षो वीनां पक्षिणां स्फूर्तिभृत् यथोद्देशं कणभक्षणायोद्वमनचेष्टाकृत् किन्नास्ति किन्त्वस्त्येवेति त्वं वव कथय जानीहीति तात्पर्यार्थः । इह च पूर्ति विकासलक्षणामविकलतामनुभवतः श्रीसमनः पङ्कजस्य मधुनो मा लक्ष्मीः सम्पत्तिर्मकरन्वप्राप्तिरस्ति । राज्ञश्चन्द्रस्य रुचि कान्ति विजयते प्रहरतीति राजरुग्विजयो तस्य तव मूर्तिस्तु भाति रोचतेऽस्मभ्यमिति शेषः । तथा वियति शोणितस्य कोपदेशो रक्तप्रकोपः प्रागेवोत्थितः पूर्वस्मिन् काल एव संजातोऽधुना तु पुनरेष नवो नवीनश्चासौ दब्रुश्च कुष्ठविकारविशेषः, विस्फूर्तिभृत् समभिव्यतिमानस्ति । किमिति पृच्छाकरणे । यतः खलु राजनजः क्षयरोगस्य विजयिनस्तव मूर्तिस्तावन्मधुमेहस्य नाम मूत्रमार्गरोगस्य पूर्तिमनुभवतः श्रीसदमनो धनाढयजनस्यापि भाति किमुतान्येषां सर्वसाधारणरोगिणामिति ॥२२॥
अर्थ-हे नरप्रवर ! जयकुमार ! आकाशकी पूर्व दिशामें उठा जो यह लाल रंग दिख रहा है, वह क्या विस्फूतिमान्-पक्षियोंकी चहल-पहलसे युक्त द्रु-वृक्ष ही नहीं है ? यह कहो । अर्थात् यह लाल लाल पल्लवोंसे युक्त वृक्ष ही है और उसके आश्रयमें रहने वाले पक्षी दाना चुगनेके लिये इधर-उधर उड़ रहे हैं। इधर पूर्ति-पूर्ण विकासका अनुभव करने वाले श्रीसदम-कमलके मधुमकरन्दकी मा-लक्ष्मी सुशोभित हो रही है, अर्थात् खिले हुए कमलोंसे मकरन्द चं रहा है और इधर राजग्विजयिनः चन्द्रमाको कान्तिको जीतने वाला आपका शरीर सुशोभित हो रहा है, हम सबको रुचिकर हो रहा है । तात्पर्य यह है कि चन्द्रमा निष्प्रभ हो रहा है और आपकी प्रभा बढ़ रही है। । __अर्थान्तर-इधर आकाशमें जो पूर्वकी ओर लाली दिख रही है, वह रक्तके प्रकोप से उत्पन्न निरन्तर बढ़ने वाली उसकी दद्रु-दाद क्या नहीं है ? अर्थात् है। और इधर राजरुग्विजयी-क्षयरोगपर विजय प्राप्त करने वाला आपका शरीर मधुमेह-मूत्रमार्गके रोग विशेषसे युक्त श्रीसदम-धनाढय पुरुषोंको भी अच्छा लगा रहा है-काश, ऐसा शरीर हमें भी प्राप्त होता, फिर साधारण रोगियोंकी तो बात ही क्या है ॥२२॥
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