Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 681
________________ १२८६ जयोदय-महाकाव्यम् [८८-९० विशेषयन् कथाभागं कविः कश्चित् कलागुणैः । पिबन्तः पर्वतापायं कपयोऽन्ये सहस्रशः ॥८८॥ विशेषयन्नित्यादि-कथाभागं विशेषयन् सरसतया जनसाधारणस्य उपयोगितया वालंकुर्वन् स्वस्य कलागुण: चातुर्यादिभिः कश्चिदेव कविर्भवितुमर्हति । पर्वणः सर्गस्य भावः पर्वता तस्यापायो विच्छेदः तं पक्षे पर्वतस्य गिरेरपायं विकारं पिबन्तोऽन्ये सहस्रशः कपयो वानरा इव चाञ्चल्यमिताः सन्ति मादृशा इति ॥८८॥ लोके समन्तभद्रोऽसौ प्रबन्धो जयताच्चिरम् । सम्भवन्नकलङ्कश्च विद्यानन्दः शिवायनः ॥९॥ ___ लोक इत्यादि-समन्तभद्रः समन्ताद् भद्रः सुगमतयार्थदायकः प्रबन्धः समन्तभद्रनामक आचार्यश्च, अकलङ्कः कलङ्करहितो निर्दोषः पशेऽकलङ्कनामाचार्यस्य, विद्याया आनन्दो यस्मिन् स पक्षे तन्नामक आचार्यः, नः अस्माकं शिवाय कल्याणाय पक्षे शिवायननामाचार्यश्च सम्भवन् चिरं जयतात् ।।८९॥ महापुराणं मधुरं विलोड्य क्षीरवन्मया । नवनीतमिवारब्धं प्रीत्यै भूयात् सतामिदम् ॥९०॥ स्पष्टमिदम् ॥१०॥ अर्थ-अपने चातुर्य आदि गुणोंके द्वारा कथाभागको विशिष्ट करता हुआ कोई विरला ही कवि होता है, किन्तु पर्वतापायं-सर्ग समाप्तिका अनुभव करने वाले, अर्थात् एक के बाद एक अनेक सर्गोंकी रचना करने वाले (पक्ष में पर्वतके विकार-पर्वतसे निःसृत निर्झरोंका पान करनेवाले वानरोंके समान चञ्चलतासे युक्त मेरे समान हजारों कवि हैं ।।८८|| अर्थ-लोकमें यह प्रबन्ध जयोदयकाव्य) समन्तभद्र-सब ओरसे कल्याण कारक (पक्षमें समन्तभद्राचार्य) अकलङ्क-निर्दोष (पक्ष में अकलङ्क नामक आचार्य और विद्यानन्द-ज्ञानगरिमासे आनन्द देने वाला (पक्षमें विद्यानन्द आचार्य) होता हआ चिरकाल तक जीवित रहे-पठन पाठनमें आता रहे तथा नः शिवाय-हम सबके कल्याणके लिये हो (पक्षमें शिवायन आचार्य हो) ॥८९।। अर्थ---मैंने दूधकी तरह मनोहर महापुराणका विलोडन कर नवनीतमक्खनके समान इस काव्यकी रचना की है। यह सज्जनोंकी प्रीतिके लिये हो ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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